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श्रीचन्द्रावली

नित्य अनित्य―नित्य―त्रिकालव्यापी, अविनाशी। अनित्य―क्षणभंगुर, नाश्वान्। क्रमश्ः ब्रह्म और जीव सम्बन्धित।

श्री वृंदावन―भगवान श्रीकृष्ण का क्रीड़ा-क्षेत्र वृंदावन।

प्रेमानन्दमयी श्री ब्रजबल्लभी लोग―प्रेमानन्द से पूर्ण श्री कृष्ण के भक्त। ब्रज में ही भगवान् का स्वरूपतः और कार्यतः प्राकट्य हुआ था।

विरहावस्था―पुष्टिमार्गीय भक्ति में प्रभु का स्नेह परिपूर्ण प्राप्त होना फल है। वह स्नेह दो प्रकार का है―सयोग और विरह। प्रभु पर स्नेह होने के अनन्तर था सेवा से अलग होने पर विरह का अनुभव होता है। संयोग और वियोग दोनों मे भक्त प्रभु का सामीप्य प्राप्त करता है।

श्रीगोपीजन―प्रेमानन्द की अवस्था मे भगवान् में तन्मय होनेवाली गोपियाँ। वेणुरव सुनकर उनहोंने यह आनन्द की अवस्था प्राप्त की थी।

सरि―समान।

हरिरस―रस―प्रेमरस। श्रीकृ्ण के प्रति प्रेम।

जन तृन-सम...हरिरस माहीं―श्रीकृष्ण के प्रेम मे लोक-लाज, कुल-मर्यादा का ध्यान नहीं रहता।

छाँहीं―छाँह।

लता पता―लता और पत्ते, पेड़-पत्ते।

जामैं―जिसमें।

सिर―ऊपर का भाग (लता और पत्तों कि जड़)।

भींजै―भीगे।

रूप-सुधा―रूप की सुधा। सुधा―अमृत।

श्री महादेवजी की प्रीति...आश्वर्य नहीं―जो हरिभक्त महादेवजी की प्रीति के पात्र हों, उन्हें हरिरस मे डूबना ही चाहिए। पुराणों में शिवजी और नारद के बीच भक्ति-प्रसंग का प्रायः उल्लेख मिलता है।

श्रीमती―प्रधान महिषी राधा! साहित्यिक लक्षण के अनुसार ज्येष्ठा। कृष्ण के साथ साथ राधा की महानता सम्प्रदाय गत विशेषता है।

लीलर्थ दो हो रही हैं―कृष्ण ब्रह्म हैं। राधा उनकी शक्ति और उन्हींसे आविर्भूत है। अतएअ एक होते हुए भी लीलावश उन्होंने अलग अलग रूप धारण किय है।

डगर-डगर―मार्ग-मार्ग।

निनेष―रोकना।

जल मे दूध की भाँति―अभिन्न।