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श्रीचन्द्रावली

ललचौंही बानि―लालच से भरा स्वभाव, बात।

निगोड़ी―दुष्टा, अभागी।

जुरे―मिले।

मोहन हके रस...तनिक दुरे―श्रीकृष्ण के प्रेम में विचलित रहते हैं और तनिक भी न देख पाने से तड़पते है।

निगुरे―गुण-रहित,अशिक्षित।

खीइयौ―क्रुद्ध हुआ, झुँझलाया।

वरज्यौ―रोका।

बुते―बुझे हुए।

विष के बुते छुरे―अर्थात् मर्मान्तक पीडा पहुँचने वाले।

उलझौंहैं―अटकने वाले, फँसने वाले, क्षुब्ध होनेवाले।

गन―गयन्द हाथी!

लैन के दैन―संकटमय स्थिति।

वह छबि―इससे प्रकट है कि चन्द्रावली श्रीकृष्ण का सौन्दर्य देख चुकी है।

बतरानि―बातें करने का ढंग।

मुरति―मुड़ने का ढंग।

कोर―किनारा,ओर।

धीरी―मन्द।

बीरी―पान।

पीत पिछौरी काछे―पिछौरी―ओढ़ने की चादर। काछे― पीताम्बर बाँधे हुए, पहने हुए।

बिरहागम रैन सँजोवती हैं―विरह के आगमन से रात को सजाती हैं अर्थात रात को विरह-पीड़ा से पीड़ित होती है।

तुझे अपनी आरसी...आज खुला― आँखों मे बसे हुए श्रीकृष्ण को आरसी या दर्पण के माध्यम द्वारा देखती रहती थी।

वियोग ओ सँयोग...लखि न परत है―वियोग तो है ही, आरसी या दर्पण के माध्यम द्वारा आँखों में वसे प्रियतम को देखना ही संयोग है।

परम पुनीत प्रेमपथ―श्रीकृष्ण के प्रती परम पवित्र प्रेम-मार्ग का अनुमरण।

प्रेमियों की मंडली की शोभा है―प्रेमियों में शिरोमणी हो।

मैं जब आरसी में...मुझे न चाहे, हा!―ये पंक्तियाँ चन्द्रावली के चरित्र पर प्रकाश डालती हैं। यह अपने प्रियतम को किसी प्रकार भी दुःखी नहीं देखना चाहते है। स्वयं ही सब कष्ट सहन करना चहती है।