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श्रीचन्द्रावली


                       श्रीचन्द्रावली

राधिकारौन-श्रीकृष्ण। भँवर-भौंरा। मोहन-व्रत-धारी-मोह का व्रत धरण करनेवाले अर्थात प्रीति में अस्थिरता। मानस-मन, मानसरोवर अर्थात श्रीकृष्ण। गोभा-अँकुर। येदन-वेदना। हत्यारिन वरपा रितु-वर्षा ऋतु में विरही जनों की पीडा और भी बढ जाती है। विधिना-विधाता। उमाह-उत्साह, उमंग। इस ऋतु में...प्यारी कहने वाला कौन मिलेगा-यह कथन रीति-कालीन विरहिणी नायिका के कथन से साम्य रखता है।

                        अंकावतार

अंकावतार-दे० भूमिका (सक्षिप्त नाटक-शास्त्र)। बीयी-मार्ग, रास्ता। साँड-घंड, बैल। तापैं-उस पर। निपूते-पुत्रहीन। एक प्राकार की गली जिसका ब्रज-प्रदेश मे अब भी प्रयोग होता है। सुबल-गोप का नाम। तूमढी-तूंबी, एक प्रकार का बाजा। लहकाय दीनो-झोंके के साथ दौडा दिया। रपट्टा-झपट्टा। चपेट। कौन गति कराऊँ-कैसी तबियत ठीक कराऊँ, दुर्दशा कराना, पिटवाना। प्रानन की हाँसी-एसी हँसी जिससे प्राणों पर आ बने। हाट-वाजार। यारैँ-प्रेमी। खुटका-चिंता, आशका। लोक-वेद, अपना-बिराना-लोक, वेद, अपने और पराए संबंध तोडना ही पुष्टिमार्गीय भक्त का चिन्ह है। धर्म से फल होता है, फल से धर्म नहीं होता-यदी तुम हमें धर्मोपदेश दो तो तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि जिस प्रकार के धर्म का पालन किया