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श्रीचन्द्रावली


                        श्रीचन्द्रावली

जाता है, वैसा ही फल होता है। एसा नहीं होता कि फल को देखकर धर्म का उपदेश दिया जाय। तुमने हमें जैसा प्रेम-धर्म दिया वैसा ही हमने आचरण किया। अब तुम हमारा आचरण देखकर मर्यादा धर्म का उपदेश दो, यह तो टीक नहीं है। मुहँ ढको फिर भी बोलने बिना डूबे जाते हो-मुँह ढँककर न बोलने का उपक्रम करो फिर भी तुम्हारा बोलने के लिए चित व्याकुल रहता है। हम तो बोलना नहीं चाहते तब भी तुम बोले बिना नहीं रहते। -चन्द्रावलीके नाम का प्रतीक। चक घहराय-मुसीबत आए। कपोत व्रत-बिना आह किए अत्यचार सहना। उस मुँह से...हाय निकले-जीभ खीच लेने से मुँह से 'हाय' नहीं निकल सकती। वास्तविक प्रेम वही है जिसमे कभी आह न निकले। जाके पाँव...पराई-जिसे स्वयं कष्ट सहन नहीं करना पडा वह दूसरे के कष्ट को क्या समझे। इस प्रीती में संसार की रीति से कुछ भी लाभ नहीं-विलक्षण अर्थात अलौकिक मूक प्रेम मे लौकिक प्रेम की रीति काम नहीं आती अर्थात वह लौकिक प्रेम से भिन्न होता है। वूढी फूस सी डोकरी- एसी बूढी जिसके अंग बिलकुल शिथिल हो गए हों, जिसका केवल अस्थि पंजर मात्र रह गया हो। बात फोडि कै उलटी आग लगावै-भेद खोम कर काम बिगाडे या चुगली खाय।

                       तीसरा अंक

सखी, देख बरसात...पतिव्रत पाल सकती है-यह तथा इसी प्रकार के कुछ आगे के श्रंगारपूर्ण कथन रीतिकालीन नायिकाओं की याद दिलाते हैं। वास्तव में चन्द्रावली के प्रेम-वर्णन और सखियों के वार्तालाप पर रीति कालीन परम्परा का प्रभाव है। कामदेव...भिजवाई है-वर्षा-काल में श्रंगार भावना उह्दीप्त हो जाती है, इसलिए एसा कथन किया गया है। निशान-पताका। करस्वा-युध्द के समय उत्साहपूर्ण गान। विजय के लिए आ रही सेना का रूपक होने से 'करस्वा' का उल्लेख किया गया है।