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श्रीचन्द्रावली

ऊनरी—कम, न्यून।

दूनरी—दोहरा हो जाना।

रुत—ऋतु।

काहुवै―किसी को भी।

आवती―आती।

तऊ―तब भी।

नायँ―नही।

याही―इससे।

याहू तो―यह भी तो।

छोटी स्वामिनी―चन्द्रावली के लिए प्रयुक्त। नाटिका के लक्षणों के अनुसार भी वह कनिष्ठा नायिका है।

खराबी तो हम लोगन की―अर्थात् चन्द्रावली की तरफदारी कर बिना श्रीमती जी की आज्ञा के उसके और श्रीकृष्ण के मिलन की चेष्टा करें तो श्रीमतीजी के बिगड़ जाने का भय है, किन्तु साथ ही चन्द्रावली को अकेली भी नही छोड़ सकती और न उसकी व्यथा देख पाती है।

ये दोऊ फेर एक की एक होयँगी―अर्थात् अत में चन्द्रावली का श्रीकृष्ण के साथ मिलन होने से―वह भी श्रीमतीजी की आज्ञा से―चन्द्रावली और श्रीमतीजी एक हो जाएँगी।

लाठी मारवे...जुदा हो जायगो―पानी का अलग होना असंभव है। इससे चन्द्रावली और श्रीमतीजी के अभिन्नत्व पर जोर दिया गया है। विशाखा ने आगे भी कहा है―‘तो मैं और स्वामिनी में भेद नहीं।’

ढिमकी―अमुक।

हम्बै बीर―हम्बै—हाँ। बीर―सखी, सहेली।

स्वामिनी सों चुगली खाई―स्वामिनी से तात्पर्य श्रीमतीजी (राधा) ज्येष्ठा नायिका से है। चन्द्रावली के सम्बन्ध मे चुगली।

रात छोटी है और स्वांग बहुत हैं―स्वाँग―बनावटी वेष जो दूसरे का रूप बनाने के लिए धारण किया जाय। समय कम काम बहुत। चन्द्रावली के हृदय में उमंगें बहुत हैं, जो जन्म-जन्मान्तर में पूर्ण नहीं हो सकतीं तो इस एक क्षणभंगुर जीवन की तो बात ही क्या है। अर्थात् चन्द्रावली के हृदय की सभी उमंगें इस क्षणभंगुर जीवन में पूर्ण नहीं हो सकतीं।

जी―हृदय।

अपने-पराए...बेकाम हो गई―अर्थात् वह कुल-मर्यादा और लोक-लाज सभी