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श्रीचन्द्रावली

श्रीचन्द्रावली स्वर कान में पड़ते हैं। ऐसा सम्भव होता है कि देवर्षि भगवान् नारद यहाँ आते हैं । अहा ! वीणा कैसे मीठे सुर से बोलती है (नेपथ्य-पथ को ओर देखकर) अहा ! वही तो हैं, धन्य हैं, कैसी सुन्दर शोभा है ! पिंग जटा को भार सीस पै सुन्दर सोहत । गल तुलसी की माल बनी जोहत मन मोहत ।। कटि मृगपति को चरम, चरन में धुंघरू घारत । नारायण गोविन्द कृ.पण यह नाम उचारत ।। लै बीना कर बादन करत तान सात मुर सो भरत । जग अघ छिन मै हरि कहि हरत जेहि मुनि नर भव-जल तरत ।। जुग नॅबन की बीन परम सोभित मनभाई । लय अरु सुर की मनहुँ जुगल गठरी लटकाई ।। आरोहन अवरोहन के के है फल सोहैं । के कोमल अरु तीब्र सुर भरे जग-मन मोहैं ।। कै श्रीराधा अरु कृष्ण के अगनित गुन गन के प्रगट । यह अगम खजाने द्वै भरे नित खरचत तो हू अघट ।। मनु तीरथ-मय कृष्ण-चरित की काँवरि लीने । के भृगोल खगोल दोउ कर-अमलक कीने ।। जग-बुद्धि तौलन हेत मनहुँ, यह तुला बनाई । भक्ति-मुक्ति की जुगल पिटारी के लटकाई ।। मनु गावन सों श्रीराग के बीना हू फलती भई । कै राग-सिन्धु के तरन हित, यह दोऊ ख़ूबी लई ।। ब्रह्म-जीव, निरगुन-सगुन, द्वैताद्वैत-विचार । नित्य-अनित्य विवाद के द्वै तूंबा निरधार || जो इक तूंबा लै कदै, सो बैरागी होय । क्यों नहिं ये सबसों बड़े, लै तूंबा कर दोय ।। तो अब इनसे मिलके आज मैं परमानन्द लाभ करूँगा । (नारदजी आते हैं) शुक०-(आगे बढ़कर और गले से मिलकर) आइए आइए, कहिए कुशल ___ तो है ? किस देश को पवित्र करते हुए आते हैं ? नारद-आप से महापुरुष के दर्शन हों और फिर भी कुशल न हो, यह बात तो सर्वथा असम्भव है और आप से तो कुशल पूछना ही व्यर्थ है ।