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श्रीचन्द्रावली

जीवति मरी रहै—जीते हुए भी मरी के समान (विरह के कारण)।

मुरछि परी रहै—मृर्च्छित हुई पड़ी रहती है।

बाएँ अंग का फरकना―स्त्रियों के लिए शुभ माना जाता है।

मान न मान मैं तेरा मेहमान―जबर्दस्ती गले पड़ना।

मेरो पिय मोहि बात न पूछै तऊ सोहागिन नाम―जबर्दस्ती किसी परिस्थिति में विश्वास रखना।

अतीतन―यतियों, साधुओं।

गादी―गद्दी।

संसार को जोग तो और ही रकम को है―संसार के जोग (प्रेम) का तो दूमरा ही मूल्य है, अर्थात् लौकिक प्रेम जोगिन के प्रेम से भिन्न है।

पचि मरत―हैरान होते है, वृथा बहुत अधिक परिश्रम करते है।

धूनी―साधुओं द्वारा अपने सामने लगाई हुई आग।

मुद्रा―साधुओं के पहनने का कर्ण भूषण, छल्ला।

लट―वालों का गुच्छा, केशपाश।

मनका―माला का दाना।

अचल―न टूटनेवाली, अडिग।

असगुन...चढ़ाना―असगुन की मरति―अपशकुन की मूर्ति, अपशकुन का प्रतीक, राख को शरीर पर कभी न चढ़ाना।

तमोल―पान।

है पंथ...मत जाना―ऑखों का लग जाना ही हमारा पंथ है अर्थात् प्रेम-पथ।

शिवजी से जोगी...सिखाना―यहाँ 'योग' का 'मिलना', 'संयोग' अर्थ है।

जीको वेधे डालता है―हृदय को छेदे डालता है।

चोटल―चोट खाया हुआ, जख्मी।

उपासी―उपासना करनेवाली।

डगर―मार्ग, रास्ता।

कलेजा ऊपर को खिंच आता है―जी घबराया जाता है।

पाहुना―अतिथि।

बहाली बता―बहाना कर।

आस―सहारा।

जो बोले सो घी को जाय―अपनी कही या बताई हुई बात अपने ही सिर पड़ना।

अलख गति...प्यारी की―अलख―अगोचर, जो जानी न जा सके। पिया―प्यारी―श्रीकृष्ण और चन्द्रावली।