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अपने साहित्यिक अमित्रों की रचनाओं का अनुवाद मुझसे करवाते। आज के महत्वाकांक्षी आत्म केंद्रित लेखकों में यह गुण शेष होता जा रहा है। आज ‘आरम उन्नयन’ का दौर है, पर ना॰ पा॰ उस दौर के थे, जब हमारी सुबह ‘सर्वे भवन्तु सुखिःन’ से शुरू होती थी और रात ‘मा कश्चिद् दुख भाग भवेत्’ से खत्म होती थी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता, निष्ठा, पर उनकी आस्था रही। उनकी कलम की निष्ठा भी इसलिए बरकरार रही। उस निष्ठावान कलम को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई, कामना करती हूँ कि सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति उनकी आस्था के एक अंश को ही सही मैं ग्रहण कर सकूँ।

जून, 1988
—सुमति अय्यर