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१०० :: तुलसी चौरा
 

'मेरी बातों का साफ जवाब देना बिटिया। आभार मानूँगा। मैंने तो रवि से कहा था कि तुमसे पूछ कर जवाब दे। पर उसने तो मुझे ही सामने लाकर खड़ा कर दिया।'

'………………'

'क्यों बिटिया। संशवाती वाली घटना पर कामाक्षी पारू को डांट रही थी, तुम्हें बुरा तो नहीं लगा। तुम मुझे साफ-साफ बताना बिटिया………।'

'इसमें बुरा मानने की क्या बात है? उन्होंने पारू को डांटा। मैं कैसे मना करूँ? अगर वे पास को नहीं मुझे ही बुलवा कर डांट देती तब भी बुरा नहीं मानती। मुझे तो इसी बात का बुरा लगता है, कि वह अधिकारपूर्ण मुझे क्यों नहीं डांटती। इस बात का बुरा नहीं लगता कि क्यों डांट रही हैं। यदि रवि की माँ मुझे सीधे डाँट देतीं तो मैं बहुत खुश होती।'

शनी जी ने ऐसे विनम्र उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी।

एक क्षण मौन रह के फिर पूछ लिया।

'मैंने सुना तुम्हें साल भर से ऊपर यहीं रहना है। सुनकर अच्छा लगा। इस घर की असुविधाओं में रह जाओगी? रह सको, तो यहाँ आराम से रह लो, वरना तुम लोगों के लिए पास ही में कोई दूसरा इंतजाम किए देता है।'

'यहाँ मुझे कोई असुविधा नहीं है। घर हो तो दोनों ही बातें होंगी। केवल अनुविधाओं से भरा घर या केवल असुविधाओं से भरा घर, ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा।'

'ऐसी बात नहीं है बिटिया। अगर मन न मिले, तो रोज-रोज की झिकझिक लगी रहेगी। फिर बाकी कामों के लिए वक्त कहाँ मिलेगा?'

'मुझे आपकी बात सुनकर आश्चर्य होता है। अभी तक तो मेरी वजह से कोई बात नहीं हुई। मैं तो इसी घर में रहना चाहती हूँ। कामाक्षी काकी को कई अर्थों में अपना गुरू माना है। उनसे कितना