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तुलसी चौरा :: १०१
 


कुछ सीखना है मुझे।

'पर यदि तुम्हें शिष्या के रूप में वे न स्वीकारें तो?'

'तो क्या एकलव्य ने शिष्यत्व ग्रहण करने के पहले द्रोण की अनुमति ली थी। श्रद्धा और भक्ति भाव हो तो बहुत कुछ सीखा जा सकता है।'

'तो फिर तुम उससे अधिक सुविधाजनक स्थान में रहना नहीं चाहती?'

'तहीं। आपके यहाँ कहावत भी तो है, जहाँ राम हैं वहीं अयोध्या है। मैं तो सुविधाओं में रहते उकता गयी हूँ।'

पूर्वी संस्कृति में उसकी पकड़, उसका गहन अध्ययन, उसकी बातों से साफ झलक रहा था। बोले तो ठीक है। इस तरह के सवालों से तुम्हें कोई चोट पहुँची हो, तो बुरा मत मानना बेटी। हमारे जाने-अनजाने में तुम्हें कोई तकलीफ हो या असुविधा पहुँचे तो उसे भूल जाना। बस, मैं तो सिर्फ इतना चाहता था कि तुम्हें यहाँ किसी तरह की तकलीफ न हो।'

'आप रवि के पिता हैं, विद्वान हैं। भारतीय संस्कृति को पूर्णता को समझते हैं। आपको मैं कतई गलत नहीं समझूँगी। ईश्वर करे ऐसी परिस्थिति कभी न आए।'

रवि ने उन्हें देखा। मानो पूछ रहा हो, अब तो आपको तसल्ली हो गयी होगी।'

'ठीक है, मैं पारू को भिजवाता हूँ।'

शर्मा जी उतरने लगे।

'आप चलिए बाऊ, मैं अभी आया।' रवि बोला। 'आराम से आना। जल्दी नहीं है।' शर्मा जी ने उत्तरते हुए कहा उन्हें एहसास हो गया, इस युवती की संस्कृति के प्रति गहरी श्रद्धा है और वह तमास असुविधाओं के साथ जीने का साहस रखती है।