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तुलसी चौरा :: १०५
 

'सारे फसाद की जड़ तो यही है न। ऊपर से मैं वहाँ चला जाऊँ तो फिर सीमावय्यर छोड़ेंगे थोड़े ही।'

'कैसा फसाद बाऊ?'

सीमावय्यर चाहते थे कि यह जगह देशिकामणि को न मिले। इसलिये उन्होंने मेरे पेशगी लेने के बाद अहमद अली को मेरे पास भेजा! मैंने अपने वचन से अनुसार देशिकामणि को ही दिलवा दिया। मठ से भी पत्र आ गया है। मैंने जब सीमावच्यर को पढ़वा भी दिया।

खूब बिगड़े। बोले, नास्तिक को मठ की जमीन किराये पर दी जा रही है। यह अधर्म है, अनाचार है। 'मुझको गालियाँ भी सुनाई। परसों बटाई की बैठक थी, तब भी मैंने सही जरूरतमंदों को ही बटाई पर खेत उठवाये। उस बात से भी चिढ़े बैठे हैं। वे अपने आदमियों को ही दिलवाना चाहते थे। मैंने उस दिन भी बैठक स्थगित कर दी।'

'तो इसमें आप दुखी क्यों होते हैं? आपने तो सही काम किया है।'

'दुखी नहीं हूँ बेटे। वहाँ जाते डर लगता है! फिर यह देशिका- मणि अशुभ मुहूर्त में काम शुरू कर रहा है। सीमावव्यर को अब इस बात से भी चिढ़ होगी। वैसे सैद्धांतिक रूप से चाहे जैसा भी हो, देशिकामणि ईमानदार है।’

'आपकी हिचकिचाहट पर हँसी आ रही है, बाऊ जी! बेईमान चाहे जो भी सोच ले, इससे क्या ईमानदार का साथ देना छोड़ देंगे। यही तो हमारे देश की खासियत बनती जा रही है।

बेईमानों, अत्याचारियों के डर से ईश्वर को पूजने वाला देश है या न्याय और आंतरिक शुद्धि से युक्त सत्य दर्शन न हो तो वैसी भक्ति किस काम की। किसी बेईमान गुन्डे के डर से अपने अजीज मित्र के समारोह में आप न जाएँ, यह कुछ जब नहीं रहा। आप जाएँ न जाएँ, मैं और कमली जरूर जाएँगे।