'बात वह नहीं है। खैर, चलो, हम साथ ही चलते हैं।' शर्मा भी क्षणभर की हिचकिचाहट के बाद मान गये। पर उनका चेहरा परेशान था। मन में जाने कैसी हिचकिचाहट बाकी थी। कर्मकांडी ब्राह्मण का एक विदेशी युवती के साथ नास्तिक के यहाँ जाने की घटना को शंकरमंगलम के लोग किस रूप में देखेंगे....." वे यह सोच कर आतंकित हो रहे थे।
उनका भय सीमावय्यर और अपने अन्य विरोधियों को लेकर ही था। पर निजी तौर पर देशिकामणि के दामाद के इस उद्घाटन समारोह में सम्मिलित होने की उनकी हार्दिक इच्छा थी। उद्घाटन के लिए शुभ मुहूर्त तय करना न करना हर व्यक्ति की अपने इच्छा पर निर्भर है। उसे विवश नहीं किया जा सकता।
बेटे ने किस तरह सही नब्ज पर उंगली रख दी थी।
कहा था 'आप लोग न्याय की पूजा करते हैं पर अन्याय से भय- भीत होते हैं।'
शर्मा को वहीं बात चुभ गयी थी और चलने के लिए तैयार हो हो गए।
रवि और कमली के तैयार होने के पहले वे कामाक्षी से बोलकर बाहर आ गये।
वही हुआ जिसका उन्हें सन्देह था। रवि, कमली और शर्मा को साथ निकलते देखकर, लोगबाग बाहर ओसारे पर निकल आए।
सामने से पण्डित शम्भू नाथ शास्त्री आ रहे थे। शर्मा और रवि को अभिवादन किया और कमली को देखकर शर्मा जी से सवाल किया, ये कौन हैं?'
'फ्रांस से आयी हैं। हमारे देश, हमारी संस्कृति के विषय में कुछ लिखना चाहती हैं।' शर्मा ने कहा।
'ठीक है फिर मिलते हैं,' शास्त्री चले गए। दो चार और लोग मिले उन्हें भी इसी तरह उत्तर देकर टरकाना पड़ा।