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१०८ :: तुलसी चौरा
 

इरैमुडिमाणि की यह साफ गोई शर्मा को अच्छी लगती थी पर वे जानते थे कि एक न एक दिन सीमावय्यर की दुश्मनी महँगी पड़ेगी।

'तुम ठीक कहते हो यार, तुम्हें अपने सिद्धान्तों पर अटल रहने की पूरी छूट है। पर सीमावय्यर को जानता हूँ न, इसलिए कह रहा हूँ। यह मल सोचना कि तुम्हें विवश कर रहा हूँ। दुकान तुम्हारी है, जैसा चाहो चलाओं।'

'मैं तो आपको घटना से वाकिफ कर देना चाहता था।'

इरैमुडिमणि ने वार्तालाप को पूर्ण विराम दिया। इसी समय काली कमीज पहने तीन चार कार्यकर्त्ता आ गये। उन्हें विदा कर फिर वहीं लौट आए।

'अच्छा हुआ, तुम इन्हें भी साथ ले आए।'

कुछ देर मोन के बाद शर्मा जी ने सीमावय्यर की धमकी के बारे में कह सुनाया। 'रहने दो यार उसे। उसका तो अन्तिम समय आ गया है।' इरै मुडिमणि कड़ुवाहट के साथ बोले।

शर्मा, रवि, कमली तीनों ही इरैमुरिमणि से विदा लेकर निकलने लगे, जाते-जाते रवि बेंच पर रखीं किताबें पलटने लगा।' आदि शंकर दर्शन' 'बोधायनीयनम्' पाँच रात्र वैखानख पद्धति श्री वैष्णव चण्डमारुतम' आदि पुस्तकें रखी हुई थीं।

'क्या देख रहे हो, बेटा। अपनी ही है। पढ़ रहा हूँ इन दिनों, रबि से बोले।'

'कुछ नहीं यूं ही पलट रहा था।' रवि ने कहा।

मोड़ पर आकर रवि ने पूछा, 'एक ओर तो यह अशुभ मुहूर्त में कार्य करते हैं।' दूसरी और धर्म और दर्शन की पुस्तकें पढ़ते हैं। अजीब नहीं लगता।'

'इसमें अजीब क्या है? वह हर बात को जानना चाहता है। ज्ञान को भूख उसमें जबर्दस्त है। इन विरोधाभास के बीच में उसमें एक