पृष्ठ:Tulsichaura-Hindi.pdf/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११४ :: तुलसी चौरा
 


चुका था। गौशाला की तीनों गाएँ झुलस कर खत्म हो गई थीं।

रवि को बहुत दुःख हुआ। एक तो बाऊ भी इस वक्त घर से बाहर हैं। पर वह अच्छी तरह समझ गया कि यह जानबूझकर की गयी साजिश है। वेणुकाका समेत अधिकांश लोगों की राय थी कि यह कर्मों का फल है। जाने ईश्वर किस बात पर नाराज हो गये हैं।'

पर इरैमुडिमणि चीखे, 'आदमी जानबूझकर किसी का अहित करे, और लोग भाग्य पर उसका भार डाल देते हैं। हिम्मत हो तो उसे पकड़िये जिसने यह हरकत की है। वरना चूड़ियाँ पहन डालिए।'

रवि और इरैमुडिमणि का संदेह सीमावय्यर पर था। सुबह सीमा- वय्यर भी सबके साथ आकर बैठ गए। 'पता नहीं क्या अनर्थ हो गया वरना ब्राह्मण के घर गाय और तुलसी झुलस जाए? यह कैसे संभव है।' उनके इस वाक्य में जो शरारत थी उससे उनकी आगे की कार्यवाही स्पष्ट हो गई। रवि ने उनसे सीधे मुँह बात नहीं की। वे खुद आए, स्यापा मचाया और लौट गए। लगा, अपने को बचाने के लिए यह हरकत उन्होंने की है।

रवि ने जो सोचा था, वही हुआ। सीमावय्यर ने पूरे अग्रहारम् में ढिंढोरा पिटवा दिया कि शर्मा जी ने एक नास्तिक को मठ की जमीन किराये पर दी। घर पर अनाचारी लोगों को बिठा रखा है। ईश्वर भला कैसे सहे इसे? बस आग लग गयी। कुछ लोग उनके बहकावे में आए भी।

कमली, कामाक्षी के जाने के बाद रोज सुबह नहा धोकर, लांग वाली धोती पहनकर, गो पुजन और तुलसी पूजा करती आ रही थी। आग लग जाने के बाद उसे तो कुछ नहीं सूझा। तुलसी के पत्ते ऊपर झुलस गए थे, पर जड़ें हरी थीं। उसने तो उस दिन भी वाकायदे पूजा की।

इस दुर्घटना के तीसरे दिन शर्मा जी और कामाक्षी लौट आए। शर्मा जी क्षणांश के लिए विचलित हुए। फिर जल्दी सहज हो गए।