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१२६ :: तुलसी चौरा
 

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शर्मा जी को उनका इस तरह गाड़ी में चलते हुए सवाल करना और अपना उत्तर देते हुए चलना अच्छा नहीं लगा।

वे फिर मिलने की बात कहकर गाड़ी के आगे-आगे चलने लगे। एक बदमाश से बदमाश व्यक्ति भी किस तरह अपने को सीधा और नेक प्रदर्शित करना चाहता है। कई बार यह भी होता है कि बदमाश व्यक्ति अपने इस स्वांग में इतना दक्ष होता है, कि जो सचमुच नेक है वे भी झूठे पड़ने लगते हैं।

पता नहीं इस कमली का कैसा पूर्व जन्म का रिश्ता है, हिन्दू धर्म से। मन्दिर जाती है तो श्रद्धा पूर्वक। जबकि इसी संस्कृति में जन्में पने सीमावश्यर को ताश के पत्ते से फुर्सत नहीं मिलती। मन्दिर गये जाने कितने साल हो गए होंगे। पर जो श्रद्धा पूर्वक मन्दिर जाते हैं उन्हें नोटिस जरूर भिजवा देते हैं। इसी विरोधाभास पर ही शर्मा का मन क्षुब्ध होता है।

शर्मा जी जब पहुँचे, बेगुकाका कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे।

'कहीं जा रहे हैं क्या! तो मैं फिर आता हूँ।'

'न, कोई जल्दी नहीं है डाकखाने तक जा रहा था। बाद में चला जाऊँगा।'

'हाथ में क्या है, कोई पत्र है क्या?'

शर्मा ने वह पत्र बढ़ा दिये।

'पढ़ लीजिए। मैं इसी के बारे में सलाह लेने आया था।'

'एक तो कमली के नाम है, शायद।'

'हाँ एक मेरे नाम है, एक उसके नाम।'

वेणुकाका ने पत्र पढ़े।

'तो बात यहाँ तक पहुँच गई? किसकी शरारत है यह सब फूस ढेर में आग लगाने पर भी छाती ठंडी नहीं हुई।'