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तुलसी चौरा :: १२७
 

'अब ये तो आप जानते ही हैं। सीमावय्यर गुस्से में जाने क्या-क्या किये जा रहे हैं। गुस्सा तो मुझ पर है न, उस लड़की से कैसा विरोध?'

'तो अब क्या करने का इरादा है?'

'वस, वही तो सलाह लेने आया हूँ।'

'अच्छा किया जो आ गए। इसका कोई जवाब मत देना। इसे उठाकर कोने में फेंको।'

'पर यह तो वकील का नोटिस है, इसका जवाब तो देना होगः न।'

'पहले उन्हें कार्यवाही तो करने दो। फिर देखेंगे।'

'मैं इसका जवाब लिख देता हूँ कि मैंने धर्म के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया है और कमली भी लिख देगी कि वह पूरी श्रद्धा के साथ ही मन्दिर जाती है। यह ठीक नहीं रहेगा क्या?'

'यह तो टंटा मोल लेने के लिए भेजे गये नोटिस हैं। इनको इतनी सम्मान क्यों दिये जा रहे हो। तुम लोग जवाब दो या न दो कार्यवाही तो होनी ही है। तुम्हारे पत्र लिख देने भर से कुछ बदलना तो है नहीं पहले देखते हैं वे क्या कर रहे हैं, फिर करेंगे कुछ।'

'अब आप कह रहे हैं।' तो ठींक है।

'देखो यार, तुम साहस मत छोड़ो। इतने विद्वान हो, बस इन गीदड़ भभकियों में आ गये। यही तो कमी है तुममें। पहले तो आप रवि को यहाँ बुलवाने में हिचक रहे थे। तब मैंने ही आपको हिम्मत दिलाई थी न। अब भी मैं ही कह रहा हूँ, यहाँ तो अब हाल यह हो गया है कि जो डरपोक है पर नेक है, उसे डराओ, पर जो निडर बदमाश है, उससे डरो।'

'आप मेरे भीतर के सात्विक गुण को भय क्यों मान लेते हैं? मैं डरपोक नहीं हूँ। डरपोक होता तो इन दोनों को घर पर न ठहराना। मेरी बीबी ही मेरा विरोध कर रही है। डरपोक होता