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१२८ :: तुलसी चौरा
 


तो नास्तिक को जमीन किराये पर नहीं देता। यह सही है अपने साहस का ढिंढोरा पीटता नहीं फिरता।'

वेणूकाका ने सिर उठाकर देखा।

'शाबाश, अब हुई न बाल। साहस के बिना ज्ञान का भला क्या मूल्य? वेद का गलत पाठ करने वाले की तुलना में सही दाढ़ी बनाने वाला नाई ही श्रेष्ठ है। भारती ने यही तो कहा है।'

शर्मा जी की बात सुनकर वेणुकाका को लगा, वे सचमुच उन्हें गलत समझ बैठे हैं। उनकी वेशभूषा या आचार व्यवहार भले ही पुरातन हो, पर वे मन से प्रगतिशील हैं।'

'अब इसका जबाब मत देना। शाम को रवि से कहना कमली को मन्दिर ले जाए।' सबकी बातें उन्होंने शर्मा जी के कान में कही।

'इससे क्या लाभ होगा?'

'क्यों नहीं होगा, इस रसीद ले लेना। इसे कल परसों पर भत टालना। आज ही निपटा लेना।

'ठीक है, तो चलूँ।' शर्मा उठ गये। वेणुंकाका ने शर्मा जी को उत्साह के साथ विदा कर दिया।

शाम शर्मा जी ने रवि को बुलाकर कहा, 'रवि आज कमली को मन्दिर लिया जाना वहाँ अर्द्ध मंडप के पास चंदे वाला बैठा होगा। पांच सौ रुपये कमली के हाथ से दिलवा देना और रसीद ले आना।'

'तो हुँडी में डलवा देंगे बाऊ। रसीद की क्या जरूरत?'

'नहीं रसीद चाहिए, कमली के नाम की। ले आना।'

रवि कमली को लेकर मन्दिर गया। हिन्दू स्त्री की तरह कमली हाथों में पूजा की सामग्री लेकर उसके साथ मन्दिर हो आयी।

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एक स्त्री और पुरुष बिना किसी रिस्ते के साथ-साथ रहने लगें इसे शंकरमंगलम जैसा। भारतीय गाँव बहुत दिनों तक नहीं पचा सकता। जिस पर वह विदेशी युवती हो तो फिर अफवाहों की तो कोई सीमा