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१३० :: तुलसी चौरा
 


संध्या बंदन समाप्त किया।

इरैमुडिमणि उनके लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। आते ही शर्मा ने बात शुरू की, 'कमली को और मुझे वकील का नोटिस भिजवाया गया है। मैंने यह बात वेणुकाका और तुम्हें ही बतायी है।'

'कैसा नोटिस? किसने भिजवाया है?'

'किसका नाम लें। यहीं के लोग हैं। मेरे बारे में और कमली के मंदिर प्रवेश के बारे में उन्हें शिकायतें हैं।'

'एक बात कहूँ यार, तुम्हारी जात बाले जलने के सिवा कुछ नहीं करते। अब तो मंदिर में जाने वाले ही कम होते जा रहे हैं। जो लोग श्रद्धा के साथ जा रहे हैं, उन्हें तुम्हारे ही लोग रोकने लगे हैं। लगता है, मेरे संगठन का काम अब ये लोग करने लगेंगे।'

'सीमावय्यर ही फसाद की जड़ है। सामने मिलो, तो इतने प्यार से बातें करेंगे कि बस! पीठ पीछे ये सारी करतुतें, लोगों को भड़काना………।'

'बह तो मरेगा कुत्ते की मौत। संपोले की तरह घूम रहा है गाँव में। (इस उसको भड़काने के अलावा आता भी है कुछ! हमारी दुकान को बंद करवाना चाहा। नहीं बना। लोग तो माल देखते हैं)। आदमी को थोड़े न देखते हैं।'

'इस नोटिस में यह भी एक आरोप है।'

'अच्छा? यार, पहले मालूम होता तो मैं तुमसे माँगता ही नहीं। तुमने किराये पर उठाने की बात कही थी, सोचा हम ही क्यों न ले लें।'

'तुमने मांगा और मैंने दिलवाया गलती दोनों की नहीं है। सब नीति नियम के अनुसार ही हुआ है। अहमद अली को जगह दिलवायी जा सकती है तो तुम्हें क्यों नहीं।'

'मन्दिर और भगवान को न मानने वाले नास्तिक से मन्दिर की मूर्तियों को चुराकर बेचने वाले उन्हें बेहतर लगते होंगे। सीमावय्यर