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तुलसी चौरा :: १३३
 

'बाऊ जी, भैय्या और कमली आ रहे हैं, मंदिर से।'

कमली के माथे पर भभुत और कुंकुम लगा था। शर्मा जी के पास आयी और उन्हें कागज को पुड़िया में बँधी भभूति, कुंकुम और बेल के पत्ते बढ़ा दिये। रवि को डर लग रहा था। कहीं बाऊजी कमली के हाथों से प्रसाद लेने से इन्कार न कर दें। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

शर्मा जी ने प्रसाद ले लिया। कमली के हाथों से थाली लेकर उसे आंखों से लगाया और प्रसाद ले लिया। रवि को जैसे विश्वास नहीं हुआ।

'चंदा दे दिया था। रसीद भी मिल गयी। ये लीजिये बाऊ जी।' रवि ने रसीद उनको दिखाया।

कमली ऊपर चली गयी। रवि उसके पीछे जाने लगा तो शर्मा ने रोक लिया 'तुम ठहो, तुम से कुछ बातें करनी हैं।' उसके कान में कहा, 'अभी आया बाऊ, बस एक मिनट।' रवि ने उनसे कहा और सीढ़ियाँ चढ़ गया। इस क्षण शर्मा का मन बिल्कुल साफ था। पूर्णज्ञानी की अवस्था में पहुँच गये थे वे। इसलिये उनकी निश्छल मुसकान लौट आयी थी। रवि की प्रतीक्षा में पेपर पेंसिल लिए बैठे रहे मन में जैसे कुछ निश्चय कर लिया था।

रवि के मन में एक नामालूम सी खुशी थी। बाऊ का उसे बुला- कर मन्दिर जाने को कहना, फिर कमली के हाथों से प्रसाद लेना, फिर उससे बातें करने की इच्छा जाहिर करना―उसे लगा, एक अच्छी शुरुआत है।

कमली के हाथ से प्रसाद लेने की इस उदारता से वह अभिभूत हो उठा था। कमली से बाऊ की इस उदारता की चर्चा करते हुये बोला, 'इसी जगह अगर माँ होती तो एक महाभारत हो जाता। पर बाऊ तो बाऊ ही हैं।' वह सीढ़ियाँ उतरने लगा, तो कमली ने कहा, 'देख लीजिये एक दिन आपकी माँ भी इसी तरह मेरे हाथ से प्रसाद