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१३६ :: तुलसी चौरा
 

'कहते हैं' 'शुभस्य शीघ्रम्।' यहाँ फैलती अफवाहों को देख सुन- कर अब मैंने भी जिद पकड़ ली है। बस आपको एक मदद करनी होगी। इस गाँव में आपकी तरह मदद करने वाला और कोई नहीं है।'

'क्या बात है, इतनी लम्बी भूमिका क्यों बांधी जा रही हैं?'

बात क्या है, पहले बताओ तो!

शर्मा जी ने किसी तरह हकलाते हुये बात पूरी की।

यह सुनते ही वेणुकाका भागे-भागे भीतर गये और मुट्ठी भर चीनी ले आये, शर्मा जी के मुँह में चीनी डाल दी। उनकी खुशी जैसे फूटी पड़ रही थी।

'बसंती को तार अभी किये देता हूँ। तुम फिक्र मत करना। जब कमली का कन्यादान मुझे करना है, तो उसका मायका यही हुआ न।' शादी इसी घर में होगी। 'लग्न पत्र' मण्डप की तैयारियाँ शुरू करता हूँ।'

'अपनी घरवाली से और पूछ लेते....।'

'क्या पूछूँ उसे कह दूँगा कि बसंती की तरह यह भी अपनी बिटिया है। इसका कन्यादान हमें ही करना है। मेरे पास वेदी पर आकर बैठ जाओ। वह कोई ना-नुकुर नहीं करेगी, जानता हूँ। यह दिक्कत तो तुम्हारे घर पर है तुम्हारी पत्नी मण्डप में आयेगी भी या नहीं?'

'उसके बारे में क्या कहूँ, पर हाँ मुझे तो नहीं लगता की वह आयेगी।'

'कोई बात नहीं। जो जिंद में अड़े रहते हैं, दुनिया उनके लिये नहीं रुकती। बीस-तीस साल पहले जब अपनी शादी हुई थी तो जितने भी अनुष्ठान उसमें हुये थे, सब करेंगे। मेरे ऊपर छोड़ दो। सब कुछ मैं देख लूँगा। तुम तो समधी हो। मैं तो लड़की वाला हूँ न। तुम बस विवाह पर आ जाना। बाकी मैं देख लूँगा।'

'तो क्या मैं फिक्र करना छोड़ दूँ। यह आम शादियों की तरह तो है नहीं। चार दिनों के अनुष्ठान के लिये पण्डित कहाँ से मिलें।