से खूब घुल मिल गयी थी। मेरे आने की सूचना उन्हें भी दे दें।
शर्मा जी ने इस पत्र को जाने कितनी बार दोहरा डाला होगा। कामाक्षी अलग से जान खाती रही।
'ऐसा क्या लिख दिया है, उसने? हमें भी तो कुछ बताइए।'
'तुम चुपा जाओ अब। साफ-साफ बता दूँ, तो सारा मोहल्ला इकट्ठा कर डालोगी। फिर...‘छोड़ो। मुँह मत खुलवाओ।'
'तो क्या आप सोचते हैं, मैं चिट्ठी पढ़वा नहीं सकती? अरे, पारू से पढ़वा लूँगी। नहीं तो शाम को कुमार आयेगा उसी से पढ़वाय लेंगे।'
उन्होंने पत्र को सँदूक में बंद कर दिया। सँदूक की चाबी अंटी में ही बँधी रहती है। वैसे कामाक्षी उनके इस दो टूक जवाब से ही कुछ अंदाजा लगा चुकी होगी। कहने को कह भी देते पर इधर वह कुछ ऊँचा सुनने लगी है। एकबार लो वे ऊँची आवाज में कहना शुरू किया था, फिर जुबान काट ली थी। खैर, कामाक्षी ने भी जिद नहीं की, यह अच्छा ही हुआ।
शंकरमंगलम का अग्रहारम आम अग्रहारों की तरह ही है। आपसी खींचातानी, उठापटक, बैर भाव, ईष्र्या-द्वेष सब है वहाँ। बुजुर्गों की पुरातन कट्टरता, जातिगत भेदभाव, नये लड़कों का शहर की ओर पलायन, दलगत राजनीति, खेत खलिहान के झगड़े, आगजनी― सब कुछ वैसा ही है जैसा किसी भी गाँव में होता है।
यूँ आज का आम भारतीय गाँव, पुराने मूल्यों का पक्षधर भी कहाँ रहा? नये मूल्यों के प्रति सहजता भी नहीं रहती वहाँ। न पुराने का मोह छूट पाता है न नये बदलते मूल्यों को ही वे अपना पाते हैं। लिहाजा एक त्रिशंकु की-सी स्थिति बनी रहती है। धर्म- अधर्म, न्याय-अन्याय, लालच, ईर्ष्या, चोरी, दोस्ती, जुएबाजी-पूजा पाठ, तंबाकू-कथा पुराण, गरीबी-संपन्नता―ऐसी कितनी ही बेमेल बातों का पिटारा है, यह गाँव। यही क्यों? शायद हर गाँव...।