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१३८ :: तुलसी चौरा
 


तिलक के लिए तुम शुभ मुहूर्त निकलवा लेना।

‘खुशा तो मैं भी हूँ यार। पर हिचक भी है एक ओर यह काम आवश्यक भी है दूसरी ओर लोगों का मुँह बन्द करने के लिए यही एक तरीका मेरी समझ में आया था। पर इसमें भी कई दिक्कतें आयेंगी.....।’

‘दिक्कत क्या आयेगी। मैं तो हूँ न, देख लूँगा।’

‘तुम तो क्या तुम्हारा निर्माता ब्रह्मा ही चले आएँ तब भी मेरी पत्नी का मन नहीं बदल सकतें। बात उसे मालूम हो जाए, तो खा जाएगी मुझे।’

‘उसे समझा बुझाकर देखो शर्मा। तुम्हारी घर वाली क्या तुमसे भी अधिक कर्मकांडी है।’

‘हो न हो, पर जिद्दी बहुत है। अक्ल हो तो कार्य और कारण पर विचार करें। पर जिद्दी और अड़ियल लोग किसी पर भी विचार नहीं करते।’

‘रवि से ही कहीं न, बात कर ले।’

‘वह तो किसी के कहे नहीं मानेगी। वह उसकी सोच है। उसे अपनी ही तरह, परदेवाली बहू चाहिए। जो कम पढ़ी लिखी हो और उसके वश में बनी रहे।’

‘शादी तो बेटे को करनी है, उसे नहीं। बेटा जहाँ नौकरी कर रहा है, वहाँ का माहौल जैसा है, वैसी ही तो बीबी उसे चाहिए। हमारे यहाँ के यह ढोंग किसे चाहिए। यह तो भाग्य की बात है कि उसे लड़कों की अच्छी मिल गयी। हम बीच में क्यों पड़े।’

किमली तो विनम्र भी हैं, पढ़ी लिखी भी। हमारे यहाँ की पढ़ी लिखी लड़कियों भी शायद ही इतनी विनम्र हों।’

शर्मा, तुम दो दिन सब कर लो। बसंत को आने दो। वह बात करके देख लेगी। हो सकता है वह प्लेन में ही चली आवे। इतनी जल्दबाजी कर रही थी, वह तो।’