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तुलसी चौरा :: १३९
 

‘मुझे तो लगता है, कि काम अपने से ही मानेगी। किसी के कहने पर मान जाए, मुझे नहीं लगता।’

रवि तार देकर लौट रहा था।

वेणुकाका ने रवि से पूछा’ ‘एक्सप्रेस दिया है, या सादा.......।

‘एक्सप्रेस ही दिया है, सुबह तक मिल जाएगा।’

‘शर्मा जी पंचांग साथ ही थामे थे, इसलिए मंडप, तिलक के लिए भी मुहूर्त निकालने का अनुरोध किया गया।’

शर्मा जी ने पंचांग पलटकर तिथि निश्चित की।

‘आज तो इतनी खुशी हो रही है कि बस खीर खिलाने का मन हो रहा है। यहीं खाना बनेगा?’

बेणुकाका ने बहुत आग्रह किया।

‘आज रहने दो। तिलक वाले दिन खा लेंगे। तुम्हारे यहाँ का खाना कहाँ भगा जा रहा है।’ शर्मा जी लौट आए।

लौटते में दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई। फिर भी शर्मा जी वेणुकाका की तारीफ करते हुए चले आ रहे थे। बहुत अच्छे इन्सान हैं। मदद करना हो तो हमेशा हाजिर। मदद करने की भावना के साथ-साथ साहस्र का होना और वही दात है। लोग बड़ा मदद तो कर देंगे पर ऐसे कामों में जहाँ साहस की जरूरत होगी, पीछे हटेंगे। पर वेणुकाका में यह बात नहीं.....।

रवि जैसे उनकी बातों को मौन स्वीकार कर रहा था। जब तक तैयारियाँ पूरी न हों, बात को छिपाय रखने का आश्वासन एक दूसरे को दिया। कामाक्षी से बातें करने का जिम्मा बसन्ती पर छोड़ दिया गया। उस रात कमली से रवि ने इस बात का जिक्र किया।

अगले दिन सुबह को डाक से मठ के मैनेजर का एक पत्र आया। वकील के नोटिस की प्रतिलिपि शायद वहाँ भी भेजी गयी थी। कुछ गुमनाम पत्र भी वहाँ पहुँच गए थे। श्रीमक के मैनेजर ते उन पर ध्यान दो नहीं दिया पर हाँ यह सुझाव जरूर दिया था कि शर्मा जी