पृष्ठ:Tulsichaura-Hindi.pdf/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
तुलसी चौरा :: १४७
 

'आप चिंता क्यों करती हैं? आप भी अपनी सास की तरह अपनी बड़ी बहू को इसको दे दीजिए।'

'कुमार की शादी होगी और उसकी पत्नी इस घर के योग्य हुई तो उसे दूँगी।'

'क्यों आपकी बड़ी बहू में क्या खराबी है?'

'चुप करो। उसके बारे में, रवि के बारे में मुझसे बातें मत करो। मेरी तो छात्री में आग लगी है।'

मैं आचार न नेम, पता नहीं किस देश से घसीट कर ले आया है और कहता है, इसी से विवाह होगा। और यह ब्राह्मण महाराज भी, उसकी हाँ में हो मिलाए जा रहे हैं। मुझे तो कुछ और अच्छा नहीं लग रहा। सर्वनाश होने वाला है। वह तो एक-दो महीने में उसे लेकर चला जाएगा। हमारे जमाने में बहू लक्ष्मी की तरह घर की रोशनी हुआ करती थी। पर ये? जाने कहाँ से आई है, और जाते हुए यहाँ से लड़के को भी ले जाएगी। इसे मैं लक्ष्मी कैसे कह दूँ।'

'काकी, तुम चाहे जो कहो, पर कमलो को आचार नेम से शून्य मत कहना। हमारे घरानों की लड़कियों की तुलना में कमली को तो बहुत कुछ आता है। हमारे यहाँ की लड़कियों को नहीं पाता जितना वह जानती हैं। ऐसा नहीं होता तो आचार्य जी स्वयं उसे बुलाकर आशीर्वाद नहीं देते। उसने फ्रेंच में सौन्दर्य लहरों और कनक धारा स्तोत्र का जो अनुवाद किया है, उसे सुनकर आचार्य जो प्रसन्न हो गए। यह कितनी बड़ी बात है। काकू को उन्होंने एक लंबा सा पत्र लिखा है। सुनेंगी आप।'

रहने दो। मैनेजर साहब को तो सोमावव्यर से पड़ती नहीं है। सीमावय्यर ने जो धाँधलेबाजी की, उसके बाद ही इन्हें उत्तरदायित्व किया गया। तब यही मैनेजर थे। अपने ब्राह्मण महाराज के दोस्त हैं न इसलिए लिख दिया होगा। अरे मैं तो कहूँ, कहीं खुद उन्हें न लिख दिया हो, कि भई ऐसा लिख देना! क्या पता किया भी हो।' -