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तुलसी चौरा :: १४९
 

'तुम ही बताओ जिस विवाह के लिए लड़के की माँ राजी न हो, उसे बुलानें का क्या तुक?'

'आप को आना है, आपके आशीर्वाद के बिना कैसे कुछ हो सकता है।' 'मैं काहे आऊँगी। तुमने क्या समझ रखा है। मेरी कोई इज्जत नहीं है। इन्होंने इतना कुछ कर डाला पर मेरे कानों तक खबर नहीं होने दी। तिलक और मंडप का दिन भी सुना, तय कर लिया गया है। तुम किसे बना रही हो? मैं तो इस विवाह में आऊँगी ही नहीं। कोई किसी से ब्याह करे, मेरा क्या।'

काकी के इस क्रोध का दूसरा पक्ष भी बसंती को समझ में आ रहा था। रवि के प्रति उनका अगाध स्नेह, अपने एक बहुत प्रिय विषय के सन्दर्भ में काकी ने कितनी नफरत पाल ली थी। पर उस घृणा और क्रोध के पीछे छिपी उनकी अनुरक्ति बसन्ती ने बेहद कोशिश की, कि काकी का मन पिघल जाए किसी तरह। पर उसे सफलता नहीं मिली। आस पास के गाँव की लड़की से विवाह करता तो माता पिता, गाँव देश से उसका नाता बना रहता। पर कमली से ब्याह करके कहीं वह फ्रांस ही न बस जाए, यह आशंका ही काकी को हिलाए जा रही थी। बसन्ती को ऐसा ही कुछ लग रहा था। अंतिम कोशिश उसने फिर की। 'शादी चार दिनों की होगी। सारे अनुष्ठान होंगे।'

'कितनी बातों में तो तुम लोगों ने शान के विपरीत काम किया हैं। अब इसमें नेम अनुष्ठान क्या बचा है। क्यों, उनके यहाँ के रिवाज के अनुसार अगूठियाँ बदल लेते न।'

काकी के स्वर में कड़ वाहट थी।

अपने बड़े बेटे को एक विदेशी युवती अपने से अलग कर ले जाएगी। इसकी कड़वाहट काकी में थी। बसंती ने कितनी कोशिश की, पर कामाक्षी मन नहीं पिघला तो नहीं पिघला। विद पकड़ ली थी उन्होंने। स्वास्थ्य ठीक रहता तो सूर्योदय के पहले घाट जाकर नहा आती पर उन्हें किसके माध्यम से सारी बातों को पता चल रही थी। यह