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तुलसी चौरा :: १५३
 

'तुम नहीं सोचोगे यार, यह मैं जानता हूँ।'

दोनों देर तक भीगे हुए खड़े रहे थे। इरैमुडिमणि को दस दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। शर्मा उनसे मिलने रोज आते। एक दिन अस्पताल से लौट रहे थे कि रास्ते में सीमावय्यर के मित्र पंडित जी मिले। शर्मा कतराकर निकलना चाहते थे पर उन्होंने शर्मा को जबरन रोक लिया और कुशल क्षेम पूछने लगे।

'कहाँ से आ रहे हैं।'

'मेरा एक खास दोस्त अस्पताल में पड़ा है उसी से मिलकर आ रहा हूँ।'

'कौन? वही परचून वाला न! साला नास्तिक है। ईश्वर के खिलाफ बोलता है, न उसी की सजा भुगत रहा है।'

शर्मा जलभुन गए। ईश्वर के कृत्यों को इस तरह तोड़ मरोड़ कर देखने की प्रवृत्ति कितनी ओछी है। ऐसा आस्तिक किसी नास्तिक से कम नहीं होता। ईश्वर निन्दा तो इसका एक प्रकार है। जब व्यक्ति सोचें कि हमारे दुश्मनों के घर ईश्वर गाज गिराए। हमारे खिलाफ बोलने वालों का सर्वनाश हो। यदि यह सही है, तो क्या ईश्वर को भी क्षुद्र राजनीतिज्ञों को जमात में हम नहीं ले आते? सच पर तिल- मिलाने वाले, पद के उन्माद में झूमने वाले अहंकारी राजनीतिज्ञ की तरह। शास्त्री जी ने वेंदाध्यान किया है।

उपनिषद् पढ़ रखे हैं, पर कैसी बात कह दी है। शर्मा जी को घृणा होने लगी। इनको तुलना में वेदों को पढ़कर उन्हें उनके सही अर्थों के साथ जोड़कर देखने वाले इरैमुडिमणि अधिक विवेकशील लगे।

शर्मा ने भीतर की खीझ दबाते हुए कहा, 'यदि हम आपकी बात ही मान लें, तो क्या इसका मतलब यह हुआ ईश्वर भी आम लोगों की तरह स्वार्थी है। अपने खिलाफ बोलने वालों को दंडित करता है; क्यों?'

'और नहीं तो क्या? भई, ईश्वर कब तक सहे।'