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१४ :: तुलसी चौरा
 

शर्मा जी ने आज की इस समस्या पर विचार करते हुए इस इतिहास को भी मन ही मन दोहरा डाला। उन्हें लगा, कि इससे पहले कि वे कोई निर्णय लें, वेणु काका से सलाह करना जरूरी है।

रवि का पत्र लेकर वे काका के घर चले गए। काका घर पर नहीं थे। बसंती बैठक में ईब्स बीकली पढ़ रही थी।

शर्मा जी को देखते ही उठ खड़ी हुई, ‘आइए काकू, बाबा बाहर गए हैं। लौटते ही होंगे। बैठिए....।’

‘ठीक है, बिटिया। बाबा को आने दो। पर तुमसे भी बातें करनी हैं, कुछ जरूरी।’

‘बस, अभी आयी। माँ से कह कर पहले काँफी तो बनवा लूँ।’

'काँफी के चक्कर में काहे पड़ गयी, बिटिया। हम तो बस, अभी पीकर आये हैं।’

‘तो क्या हुआ? मुझे भी पीनी है। तो क्या आप साथ नहीं देंगे?’

‘अरे क्यों नहीं। तू कहे, और मैं न मानूँ?’

बसंती हँसती हुई भीतर चली गयी। काकी कभी सामने नहीं पड़ती।

गांव की यह आदत अभी भी बरकरार है। बसंती और काकी के बीच एक पूरी पीढ़ी का अंतराल है।

काकी, शर्मा जी के सामने कम ही पड़ती। पर बसंती? शर्मा जी के सामने बैठती ही नहीं बल्कि उनसे किसी भी विषय पर धड़ल्ले से चर्चा करती, हँसती, बतियाती।

‘क्यों काका? रवि का कोई पत्र आया?’

‘हाँँ, बिटिया। इसी पर बात करने आया हूँ।’

‘काहिए, काका? क्या लिखा है?’

शर्मा जी ने रवि का पत्र उसकी और बढ़ा दिया। बसंती ने पत्र पढ़कर उन्हें लौटा दिया। ‘कमली सचमुच बहुत प्यारी लड़की है।’ यह वाक्य उसकी जुबान तक आते-आते रुक गया। पर जाने