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तुलसी चौरा :: १६७
 


गनपाडी, सरपंच मातृभूत्भ, जमींदार स्वामीनाथ। तीनों ने ही एक बात कही। मन्दिर के दूसरे प्राकार मैं―रति मिथुन मूर्ति के नीचे रवि और कमली भी उसी मुद्रा में एक दूसरे से लिपटे चूम रहे थे। इसे दर्शनार्थियों ने भी देखा। ऐसी गन्दी हरकत, वह भी मन्दिर की परि- कमा में करने वाले को सजा मिलनी चाहिये। कुछ और लोगों ने भी इसी घटना का हवाला दिया, इसे सुनकर कमली, रवि, शर्मा और बसंती का खून खौलने लगा। वेणुकाका शांत बने रहे और मुस्कुराते हुए अपनी जिरह प्रारम्भ की फिर वही सवाल किया।

'यह मिथुन मूर्ति किस प्राकार में है?' किस दिन और किस तारीख को यह घटना घटी थी?'

'यह मूर्ति दुसरी परिक्रमा के उत्तरी कोने पर है।' पर वह दिन और समय का उल्लेख नहीं कर पाये।

तुरन्त वेणुकाका ने कहा, 'चौकीदार ने चप्पल वाली जिस घटना का उल्लेख किया है, उसी तारीख को यह घटना या उसके किसी और तारीख को।'

'उसी दिन की यह घटना घटी थी।' तीनों गवाहों ने यह बात दोहराई। अन्तिम गवाही धर्माधिकारी की थी। मन्दिर के लिये कमली द्वारा दिया गया चन्दा, कमली ने स्वयं नहीं दिया, बल्कि उसके नाम पर किसी और ने वह रसीद बनवा ली। ये मान गये कि हस्ताक्षर उनके हैं। वेणुकाका ने तुरन्त कहा, 'क्या यह नियम नहीं बनाया गया था कि दस पांच के बन्दे के अलावा सो या उसके ऊपर के चन्दे की वसूली मन्दिर के भीतर देवालय के दफ्तर में होगी।'

धर्माधिकारी सकपका भये। समझ नहीं पाये कि यह नियम इन्हें कैसे मालूम हो गया। क्योंकि समिति की एक निजी बैठक में यह निर्णय लिया गया। उनकी गवाही झूठी पड़ गयी। साबित हो गया कि कमली के नाम पर बाहर यह धन्दा नहीं जमा किया गया।

तमाम गवाहों को देणुकाका ने झूठा साबित कर दिया।