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तुलसी चौरा :: १५
 


क्या सोचकर अपने को रोक लिया।

पता नहीं, काका कैसी मनःस्थिति में यहाँ आए हों। जल्दबाजी में कुछ कह देना बुद्धिमानी नहीं।

भीतर से काकी ने आवाज लगाई। बसंती दो गिलास़ो में काँफी ले आयी।

दोनों ने चुपचाप काँफी पी। इस बीच कोई बातचीत नहीं हुई। शर्मा जी ने ही बात शुरू की, मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा होगा।

‘ऐसा क्या गलत हो गया, काका?’

‘अब और क्या बाकी रह गया।’

‘देखिए काका, मेरी मानिए! चुपचाप दोनों को लिख दीजिए कि वे यहाँ आ जाएँ। मैंने और बाबा ने तो वहीं भाँप लिया था। हमें लगा, कि आपको किसी तरह का संदेह न रह जाए, इसलिए वैवाहिक विज्ञापन वाली बात सुझाई थी। अब तो रवि ने स्वयं ही सब कुछ स्वीकार कर लिया है।’

‘क्यों बिटिया, बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।’

‘क्या है काकू?’

‘कुछ लोग कहते हैं, कि ये फिरंगिनें पैसे के लालच में हिन्दुस्तानी लड़कों को फँसाती हैं। फिर पैसे झटककर चलती बनती है। तुम तो उस लड़की को जानती हो, मिली भी हो। रवि यहाँ आये, हमें इसमें कौन एतराज हो सकता है। यहाँ आ जाएँ तो उस लड़की से बातें करके देख लेना।’

‘क्या बात करूँगी काकू?’

‘वही पैसे वाली बात! और कौन सी?’

‘शायद आप गलत समझ रहे हैं। कमली वैसी लड़की नहीं है। रवि पर तो जान देती है, वह लड़की। पैसा तो उसके लिये मामूली बात हैं, काका। वह करोड़पति बाप की इकलौती बेटी है। पैरिस और