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तुलसी चौरा :: १७९
 


मजाक बनाया, कुछ ने निंदा की।

जब बारात सीमावय्यर के घर के आगे से निकली, तो वहाँ पंचायत बैठी थी। पर सबके चेहरे बुझे थे।

सीमावय्यर ने जानबूझकर छेड़ा―क्यों हरिहरअय्यर....।

तुम बारात में नहीं गए। सुना जनता के लिये जबर्दस्त भोज का प्रबंध किया गया है। दुल्हन फ्रेंच है न, इसलिये बकरे का सूप, मछली का झोल जाने क्या क्या...।’

‘शंकरअय्यर की हलवायी है पूरी तथा शाकाहारी भोजन की व्यवस्था है। वैदिक रिवाज के अनुरूप ही विवाह हो रहा है। यह सब जानते हुए भी सीमावय्यर छेड़ रहे थे। विश्वेश्वर शर्मा को बद- नाम करने का मौका नहीं छोड़ना चाहते थे। पर हरिहरअय्यर कहाँ छोड़ने वाले थे।’

‘अरे, तो मुझे कौन बुलाता? आप तो श्रीमठ के भूतपूर्व एजेंट हैं आपके उत्तराधिकारी ही हैं न, शर्मा जी। जब आप को नहीं खबर दी गयी, तो मेरी क्या औकात?’

सीमावय्यर को उल्टे छेड़ दिया।

‘तुमसे किसने कह दिया कि हमें नहीं बुलवाया है। हमारे नाम निमंत्रण है। पर मैं नहीं गया। ऐसी शादी में भला किसे जाना है?’ सीमावय्यर ने हाँका। भीतर ही भीतर उबल रहे थे। वंश चलता तो शर्मा को कच्चा ही खा जाते। केस से हार जाने की बौखलाहट भी थी। किसी तरह शादी से अपमानित करना चाहते थे वे।

‘हम ही हैं! जो यहाँ जले भुने जा रहे हैं। पूरा गाँव वहाँ पहुँचा है। दस हजार का ठेका है शिवकाशी वालों का आतिशबाजी के लिए। नागस्वरम् को पाँच हजार। वेणुगोपाल पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं वह फिरंगिन भी अपने करोड़पति बाप से रुपये लायी है। सब शाही खर्च हो रहा है। तुम्हारे या मेरे न जाने से उनका क्या नुकसान हो जाएगा? बड़े-बड़े व्यापारी जो वेणुगोपालन के दोस्त हैं आए हैं।