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तुलसी चौरा :: १८१
 


समझते बूझते देर नहीं लगी। हड़प मच गया। आग पर काफी देर बाद काबू पाया गया सुबह साढ़े पाठ से नौ बजे तक मुहूर्त का वक्त था। वेदों के आस पास सब कुछ राख हो गया।

वेणूकाका घबराये नहीं। सारंगपाणि नायडू को बुलवा कर बोले, 'मैं नहीं जानता तुम कैसे करोगे। किसी गुंडे का काम है यह। सुबह छह बजे तक यह पंडाल बन जाना चाहिये। लाख रुपये भी लग जाए― पर काम हो जाना चाहिए। वे भावुक हो उठे।

नायडू ने कहा, 'हो जाएगा। फिक्र मत कीजिए।' और सचमुच हुआ भी। सुबह साढ़े पाँच तक फिर वैसा ही पंडाल तैयार हो गया।

XXX
 

कमली के माता-पिता और रिश्तेदारों को दिखाने के लिए मूबी कैमरे से एक एक अनुष्ठान को फिल्माया गया। बसंती ने अंतिम कोशिश की, कामाक्षी को किसी तरह बुला लाने की। पर कामाक्षी उठने बैठने की हालत में कतई नहीं थी।

'काकी, तुम आ जाओ न। यह तुम्हारे घर का विवाह है, पर कामाक्षी ने कोई उत्तर नहीं दिया पर विरोध भी नहीं किया। बसंती चुप बनी रही। खाक काम हो रहा है वहाँ। लड़के की अम्मा यहाँ मर रही है और तुम लोग वहाँ गाजे बाजे के साथ व्याह रचाओं।' मीनाक्षी दादी, और मौसी ने बसंती से कहा पर कामाक्षी ने उस वक्त कुछ खिलाफ नहीं कहा। पर उसकी बात मानी भी नहीं।

'मैं तो पड़ी हूँ बिस्तर पर। कहाँ जाऊँगी। काहे जाऊँगी।' बारीक सी आवाज में बोली।

'कल रात आग भी लग गयी कैसा अपशकुन हो गया। देखो तो…………।'

मीनाक्षी दादी ने खीझा तब का राग अलापा। बसंती ने कोई उत्तर नहीं दिया लोगों की चालों को इस तरह अपशकुन का नाम दे देने की प्रवृत्ति पर वह खीझ गयी। पहले जब पुवाल के ढेर में आग