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तुलसी चौरा :: १८७
 


को प्रकाश देते हुए, अच्छी भावनाएँ रखते हुए, सोच और बल का एक साथ उपयोग करें। हमारे विचार एक हों―व्रत आदि अनुष्ठान एक साथ कर हमारी इच्छाएँ एक हो।

तुम ऋग्वेद और मैं सामवेद की भाँति रहूँ। मैं गगन की तरह रहूँ, तुम भूमि की भाँति रहो। मैं बीज और तुम खेत हो। मैं चिंतन हूँ, तुम शब्द। तुम मेरी और मेरी अनुचरी बनो। गर्भधारण के लिए, अखंड सम्पत्ति के लिए हे मधुर भाषिणी मेरे साथ चलो………।'

सप्तपदी की शपथ को सुनकर कमली रवि को देखकर मुस्करा दी एक-एक अनुष्ठान कमली को पुलकित कर रहे थे। छोटी-छोटी खुशियाँ, छेड़-छाड़ उत्साह, हँसी-सब कुछ तो था उस विवाह में। बसंती ने आँखों में काजल, परों में आलता और बालों में लम्बा चुटीला लगा दिया। केवल रंग से वह विदेशी लग रही थी बस। विवाह के दिन और उसके बाद के कुछ दिन कुमार और पार्वती वेणु- काका के घर ही रह गए थे, इसलिए कामाक्षी, मीनाक्षी दादी और मौसी के पास अकेली छूट गयी। चूँकि यह घर भी विवाह से संबंधित था। इसलिए द्वार पर केले का पेड़, आम के पत्तों का तोरण, दीवारों पर चूने और गेरू की पट्टी और द्वार पर एक छोटी सी―रंगोली बनी थी। पर घर में सन्नाटा था।

बीच-बीच में कामाक्षी की खांसी या हल्की सी कराह सुनाई पड़ती। बुढ़ियों का स्वर सुनाई देता। एकदम सन्नाटा पसरा था।

'वहाँ कलेवा हो रहा है, तू तो अच्छा गाती है, पर तेरे बेटे का व्याह तेरे बिना ही हो रहा हैं।' मीनाक्षी दादी ने कुछ बोलना चाहा। पहले तो कामाक्षी चुप रही लाख मतभेद हो, घर की बात इस तरह अफवाह की शक्ल ले यह बह कतई नहीं चाहती थी,। थोड़ी देर बाद कामाक्षी अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पायी, खुद विवाह के बारे में कुछ पूछने लगी।

'काम, बिल्कुल नहीं लगता कि यह वहीं फिरंगिन है। इस तरह