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१८४ :: तुलसी चौरा
 


सजा कर उसे बिठाया है। कि बस......।'

कामाक्षी का मन हुआ तुरन्त जाकर देखें पर चुप रही। कुछ उत्सु- कता दिखायेंगी तो दादी और मौसी जाने क्या सोचेंगी। पर दादी बोले जा रही थीं।

'जंबूनाथ शास्त्री ने तो मना कर दिया पुरोहिताई के लिए, बोले, आज पैसे के लालच में करता हूँ कल लोग मुझे नहीं पूछेगे, इसलिए चले गये।

वेणु ने मद्रास से बुलवाया है। गाँव के पंडित तो गए ही नहीं, पर सूना है बाहर से खूब पुरोहित आए हैं। कोर्ट ने उस लड़की को पवित्र साबित कर दिया पर ये पंडित?

'कन्यादान किसने किया?'

'तुम्हें नहीं पता? वही वेणु और उसकी घरवाली। उनके घर ही तो सुहागिनें खिलायी गयीं।'

कामाक्षी ने आगे कुछ नहीं पूछा।

मुहूर्त समाप्त होने के अगले दिन मौसी ने कामाक्षी ने कहा, 'तुम्हें देखने तुम्हारा घरवाला और वह वेणु आये थे। तू सो रही थी, मैंने पूछा जगा दूँ। बोले नहीं फिर मिलेंगे। तुम्हारी तबियत के बारे में पूछा, फिर चले गये।'

'यहाँ कौन रो रहा था। इनके लिए।' कामाक्षी बोली। रुलाई रोक ली थी मुश्किल से।

'उनको छोड़ो। तेरा वह पेट जाया बेटा आशीर्वाद लेने नहीं आया। उसे क्या हो गया।'

मीनाक्षी दादी ने कहा।

'आए तो आएं, न आएं तो न सही। मरे नहीं जा रहे हम....।'

'ऐसी बातें मत करो। तुम्हें नहीं चाहिए था। तो ठीक है पर कायदे की बात भी होती है। उन्हें तो आना चाहिए न....।'

कामाक्षी की आँखें भर गयीं। रुलाई रोक नहीं पायी। इस