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तुलसी चौरा :: १८५
 

विवाह के प्रति रुखाई जरूर छिपाने की कोशिश की पर मन तो जैसे वहीं लगा था। एक-एक क्षण वहीं कल्पना में डूबी थी। रवि, कमली, शर्मा, बसंती के बारे में लगातार सोच रही थी।

विवाह के बारे में मीनाक्षी दादी या मौसी कुछ बताती तो ध्यान से सुनती।

ऊपर दिखाने को भले ही तटस्थ रहती।

चार दिन में एक-एक अनुष्ठान की खबर, मीनाक्षी दादी देती रहीं। कामाक्षी ने ये बात जरूर पूछी।

'गृह प्रवेश कब करेंगे दादी?'

'मैंने तो पूछा नहीं।'

'पूछ लीजिए। उस दिन तो सब यहाँ आएँगे। हम रोक नहीं सकते। उनका घर है।'

'अरे, हमें तो ध्यान ही नहीं रहा।'

'मीनाक्षी दादी शाम ही खबर लायी।'

'कल का दिन शुभ बताया है। इसलिए कल सुबह छह बजे से साढ़े सात के बीच वे लोग यहाँ आयेंगे। तुम बीमार हो, इसलिए हलवाई पहले ही यहाँ भिजवा देंगे।'

कामाक्षी के मन में कड़वाहट घोलनी चाही।

गृह प्रवेश के लिए यहाँ आने की क्या जरूरत। वह भी वहीं कर डालते। शास्त्र का हवाला क्यों दे देते हैं, ये लोग।'

मौसी ने टोका पर कामाक्षी को यह अच्छा नहीं लगा।

उन लोगों का विचार था कि कामाक्षी के मन में देर कड़वाहट भरी होगी। पर कामाक्षी का मन रवि और कमली को दूल्हा और दुल्हन के रूप में देख रहा था। लांग की धोती से सजी कमली का चेहरा उनकी आँखों में घूमने लगा। मन लगातार डांवाडोल हो रहा था।

'तू तो पड़ी है। यहाँ तो आरती उतारने वाला कोई नहीं। शायद