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१५६ :: तुलसी चौरा
 


यह बसंती पहले आ जाती तो ठीक।'

'आप ठीक कहती हैं। शादी पसन्द से हो न हो। लड़का तो अपना है शादी के बाद नयी धोती पहने दुल्हन को लेकर आ जाएँ तो द्वार पर आरती उतारनी होगी न। मौसी ने कहा।

पर कामाक्षी सोच नहीं पायी उसे क्या करना है। दादी ने फिर कामाक्षी को टोका।

'लाख मतभेद हो, पर लड़के को छोड़ा थोड़े ही जा सकता है। लड़का अपना है....।'

'ऐसे में हम लोग ही साथ छोड़ते हैं, तो लोगबाग क्या कहेंगे? मौसी बोली।'

'आप दोनों थोड़ी देर चुप रहेंगी? मेरा तो दिमाग काम नहीं कर रहा है, 'कामाक्षी ने रुआंसे स्वर में कहा। पर उसकी मनोदशा वे दोनों भाप नहीं पायीं। उसकी मनःस्थिति को समझने की कोशिश उन्होंने की पर कोई सफलता नहीं मिली। परसों सुबह गृह प्रवेश हो कामाक्षो पता नहीं क्या सोच रही है उसके चेहरे पर रौनक नहीं है। शरीर में शक्ति भी नहीं रही। आँखों में आँसू भी नहीं बन्द हुए। किसी से उसने बात भी नहीं की।'

गृह प्रवेश के पहले दिन मीनाक्षी दादी बोली। 'कल मंगल कार्य रहा है, मैं विधवा यहाँ क्या करूँगी―मैं तो चली....।'

वे चली गयीं मीनाक्षी दादी के जाने के बाद मौसी भी रिश्तेदारों के घर जाने का बहाना कर वहाँ से चली गयी।

हलवाई पिछवाड़े में तंबू लगाकर अपने काम में लगे थे। कामाक्षी के चौके में उनका प्रवेश पता नहीं सम्भव हो या नहीं। इस भय से के पिछवाड़े में ही रहे। शर्मा पहले दिन रात को ही घर आ जाना चाहते थे पर कामाक्षी के मन में उन्होंने अपने इस विचार को स्थगित कर डाला था। आम के पत्तों का बन्दनबार द्वार पर रंगोली 'भीतर से आती खांसी और कराहों की आवाजें―घर का माहौल मिला जुला