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१९० :: तुलसी चौरा
 


इसमें कोई संदेह नहीं। पता नहीं मैं ही मूर्ख थी, जिंद करती थी विवाह के खिलाफ भी रही। पर अब सब कुछ भूल गयी हूँ। तुम भी भूल जाना बेटी। या माफ कर देना...।'

'अरे, ये क्या कह रही हैं अम्मा। मैं तो बहुत छोटी हूँ। आपसे तो बहुत कुछ सीखना है। मैं कौन होती हूँ माफ करने वाली?'

'तुममें अहँ नहीं है, तुम सचमुच पढ़ी लिखी हो। तभी तो मेरे इस निष्ठुरता के बावजूद मेरे प्रति आदर भाव अब भी बना है। खैर कोई बात हो अब एक ही अनुरोध और करूँगी।'

'अनुरोध नहीं आप तो आज्ञा दीजिए अम्मा....।'

'मैं तो इसे अनुरोध ही मानूँगी अगर तुम ही मेरा आदेश मानती हो तो मुझे खुशी है।'

'मैं भी तुम्हारी तरह जब इस घर में बहू बनकर आयी थी। तो मेरी सास ने जो सीख मुझे दी वही तुम्हें भी दूँगी। पर एक फर्क जरूर है। हम लोग तो इसी मिट्टी के थे। पर तुम इस मिट्टी के आचार अनुष्ठानों पर विश्वास करती हो। विद्या और विनय दोनों का यह मेल कठिन है। तुम्हारे पास दोनों ही हैं।'

'मैंने तो अग्नि को साक्षी मानकर आपके बेटे से विवाह कर लिया अब मैं दूसरे देश की कैसे रह गयी हूँ।'

'अब नहीं कहूँगी। देश जो भी चाहे हो। प्रेम, लगाव, परोपकार, सम्मान, सत्य, सहनशी यता, न्याय, निष्ठा―यह सब तो सार्वभौम सत्य है सब लोग कह रहे थे कि यहाँ के लोगों की अपेक्षा तुममे श्रद्धा अधिक है। मेरी कोई बहुत अधिक इच्छा नहीं है। मेरे बेटे के साथ तुम यहीं रहो, गृह लक्ष्मी बनकर इसी घर में बनी रहो। यह अन्तर्जातीय विवाह है। लोगों के डर से या उनकी बातों के भय से, ऐसा मत करना कि से चली जाओ। यहीं इसी घर में तुम रहो। पुरुष अग्नि संघातम औपासना करते हैं और अग्नि को प्रज्जवलित करते हैं इसी तरह इस घर की औरतें वर्षों से इस तुलसी के पौधे