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तुलसी चौरा :: १९१
 


को दीये से प्रज्वलित करती रही हैं। पूजन भी होता है। मैं नहीं चाहती, कि यहाँ पूजन करने वाला कोई भी न रहे। तुलसी सूख जाये, यह मैं नहीं चाहती। केवल खास दिनों में ही नहीं प्रतिदिन दीप प्रज्वलित हो, यह मेरी कामना है। मेरा विश्वास है इस परिवार का सौभाग्य, लक्ष्मी और श्रीवृद्धि हमारी इस अन्तरंग शुद्धि और तुलसी पूजन के कारण ही है। यही हमारे परिवार की रक्षिका शस्कि है।

एक बार रानी मंगम्मा एक व्रत नेम वाली ब्राह्मण सुहागन की तलाश में थी। अन्त में खोजकर उसे इसी परिवार की एक बहू को उसने दान में दिया था। उसी दिन से इस परिवार की बहुएँ उस स्वर्ण दीपक एवं तुलसी पूजन की अधिकार अपनी पिछली पीढ़ी से ग्रहण करती आयी हैं। आज भी पौष का शुक्रवार है। तुम इस स्वर्ण दीपक से प्रज्वलित करो और अब पूजन तुम ही करना।' स्वर्ण दीपक को प्रज्वलित कर उसके हाथ में पकड़ा दिया।

'जैसा आपने कहा, मैं अब इस दीपक को बुझने नहीं दूँगी। पर एक बार जरूर मैं अपने माता पिता से मिलने की अनुमति चाहूँगी?'

कमली ने भक्तिभाव से उस दीपक को हाथ में लिया। कामाक्षी ने कमली का अनुरोध स्वीकार किया। उसकी आँखें भींग गयीं। वह विस्तर पर थक कर लेट गयी। बसंती रवि कुछ दूरी पर यह देख सुन रहे थे। शर्मा और वेणुकाका, पुरोहित के साथ तैयारियों में लगे थे। पार्वती उनकी मदद कर रही थी। कुमार कुएँ के पास कुल्ला करने चला गया। सुबह खिल आयी थी।

कमली हाथ में दीपक लिये तुलसी चौके के पास गयी।

'तुलसी! श्रीसखि शुभे पापा हारिणी पुण्यदे, नमस्ते नारदनुते नारायण नमः प्रिये।

कमली का मधुर स्वर गूँजने लगा। वह भीतर लौटी, तो बैठक में सन्नाटा छाया था। रवि, शर्मा, वेणुकाका, बसंती, पार्वती इत्यादि सभी कामाक्षी के विस्तर के पास शाँत खड़े थे। कमली तेजी से