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तुलसी चौरा :: २९
 

तुम्हारी माँ, पार्वती और कुमार मजे में हैं। शेष, जब तुम यहाँ आओगे।' सिर्फ इतना लिखकर छोड़ दिया और लिफाफे को मोड़कर बसंती को पकड़ा दिया।

'गुस्से में, कुछ ऐसा वैसा तो नहीं लिख डाला, काकू।'

बसंती ने हँसकर पूछा।

अब पहले तू ही इसे पढ़ ले, फिर अपने बाऊ को भी पढ़वा दे। ऐसा कोई रहस्य तो है नहीं। 'शर्मा जी हँस पड़े।

'मेरे पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है, काकू। आपने ठीक ही कहा होगा।'

'कह तो रहा हूँ न। तू पढ़ ले…।'

बसंती ने लिफाफो को खोलकर पढ़ा और पिता को और बढ़ा दिया। पढ़कर बोले, 'यार जब हवाई डाक में इतना खर्च करते हो, तो चार लाइन की कंजूसी भी दिखा दी! इतनी दूर से बेटा आ रहा है, तो क्या इतना भी नहीं लिख सकते कि यहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। शर्मा जी चुप रहे।

'अब बाऊ, आप काकू को और परेशान क्यों करते हैं? इतना लिख दिया, वहीं बहुत है।'

वेणु काका और उनकी बेटी बसंती से जब शर्मा जी विदा लेने लगे, तो काका ने पूछ लिया, 'तो फिर यहाँ उन्हें ठहराने के सम्बन्ध में क्या निर्णय लिया है?'

'अपने ही गांव में, अपने ही मां-बाप, भाई-बहन के बीच कोई लौट रहा है। अगर वह अपने ही घर नहीं ठहर सकता तो फिर जहाँ जी में आये ठहर ले। ऐसी सुविधाएँ तो पी. डब्ल्यू. डी. के बंगले में भी हैं, फारेस्ट रेस्ट हाउस में भी हैं…।'

वेणु काका तो उन्हें देखते ही रह गए। भीतर कुछ चुभा जरूर पर इस खीझ में बेटे के लिए प्यार साफ नजर आ रहा था। अपने