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३० :: तुलसी चौरा
 


बेटे को अपने पास नहीं ठहरा पाने की तकलीफ साफ पकड़ में आ रही थी।

शर्मा जी लौट गए।

'बसंती, यह क्या कह गए?'

'गलत क्या कह गये, बाऊ? बेटे का मोह भी उनसे नहीं छूट रहा, दूसरी ओर अपने नेम अनुष्ठानों को भी चिंता उन्हें है। बस, दोनों ओर से पिसे जा रहे हैं, बेचारे।'

'अच्छा, छोड़ो। पहले इसे पोस्ट कर आओ। यही गनीमत है, कि चार पंक्तियाँ लिख दी।'

बसंती ने लिफाफे पर पता लिखा और खुद डाकखाने के लिए निकली। आधा रास्ता ही पार किया होगा कि सामने से पार्वती को अपनी ओर भागकर आती हुई देख रुक गयीं।

पार्वती हांफती हुई उसके पास रुक गयी।

'दीदी, बाऊ जी ने कहलाया है, कि यह लिफाफा आज नहीं डाले।'

'क्यों री? क्या हो गया है, तेरे बाऊ जी को?'

'हमें तो कुछ पता नहीं। बस यही कहलाया है।'

बसंती को लगा, पारू को आसानी से वश में किया जा सकता है।

'पारू देख, तू चाहती हैं न कि तेरे भैय्या यहाँ आएँ।'

'हाँ' दीदी। भैय्या को देखे तीन साल हो गए। माँ और कुमार भी उन्हें देखना चाहते हैं।'

तो फिर एक काम करो। बाऊ जी से जाकर कह दो, कि तुम्हारे पहुँचने के पहले ही मैंने यह लिफाफा पेटी में डाल दिया था। रवि को बुलवाने के लिए अभी-अभी तेरे बाऊ जी ने लिखा था। अब जाने क्यों मना कर रहे हैं। देख, मेरी तो समझ में नहीं आता तेरे बाऊ क्या करेंगे? हो सकता है, कि इस पत्र को फाड़ दें, और