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३२ :: तुलसी चौरा
 


अधिकार और आधिपत्य जमाना चाहते हैं। कामाक्षी भी इसे समझती थी! जहाँ प्रेम होता है, वहाँ गालियाँ अर्थहीन हो जाती हैं। प्रेम और स्नेह के प्रवाह में जब शब्द डूब जाते हैं। तो उनके अर्थ भला कहाँ उतरायेंगे?

शर्मा जी का गुस्सा हो या उनकी चीख। कामाक्षी उसे अपने साथ किया जाने वाला सार्थक संवाद ही मानती। वैसे कठोर शब्द वे कामाक्षी के अतिरिक्त किसी के लिए नहीं कहते, यह वह अच्छी तरह जानती है। कामाक्षी उनके इस अधिकार क्षेत्र को लेकर मन ही मन खूब प्रसन्न होती है। दरअसल यह आम हिन्दुस्तानी औरतों का-सा संतोष है, जो कामाक्षी में भी है। पति के आधिपत्य में जीने को महान समझने वाली पारंपरिक नारी! उस आधिपत्य से मुक्त होने के लिए संघर्षरत शहरी नारी वो उनकी कल्पना से भी परे है। उलके लिए उनका सुख दुख, मान सम्मान, स्वतन्त्रता सब कुछ उस चौखट के भीतर ही है। कन्या के रूप में देहरी लांधकर एक बार भीतर जो आती है, वहीं माँ, नानी, दादी बनकर रह जाती है। इससे बाहर की किसी भी आजादी की न तो वे कल्पना करती हैं, न ही इच्छा।

क्यों री कामू? बेटा परदेश में पिछले तीन साल से है। मेरी मानो, यहाँ बुलवा लो, और ब्याह कर भिजवा दो। मीनाक्षी दादी ओसारे पर आकर बैठ गयी। काम से चूँकि यह बात ऊँचे स्वर में कही गयी थी। आसपास के चार पांच घरों तक बदस्तूर पहुँच गयी।

संझवाती जलाकर कामाक्षी श्लोक गुनगुना रही थी। मुस्कराते हुए संकेल से उन्हें रोका। दादी पारू की ओर मुड़ी। 'कुमार कालेज से नहीं लौटा था हमने कस्बे से एक सामान का दाम पुछवाया था।'

'अभी नहीं लौटा दादी। लौटने में सात बज जाते हैं।'

इतने में कामाक्षी श्लोक समाप्त कर वहीं आकर बैठ गयी।