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३४ :: तुलसी चौरा
 

'येल्लो। यह कैसा आश्चर्य है।'

'इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है?'

मीनाक्षी दादी ने इस बात का सीधा उत्तर नहीं दिया और दैव-शिखामणि नाडार के बारे में विस्तार से बताने लगीं।

कामाक्षी ने पूरी बात सुनकर कहा, 'दादी आप तो, जाने क्या क्या कह रही हैं। यह तो उनकी बहुत तारीफ करते हैं।

इतने में एक बीस वर्षीय दुबला पतला युवक भीतर आया। पारू ने आवाज दी, 'दादी, कुमार लौट आया।'

दादी को देखते ही कुमार को जैसे काम याद आ गया और बोला, 'दादी' आपने जितना बड़ा पतीला बताया था न, उतना बड़ा तो अब नहीं मिलता। दुकानदार कह रहा था, यह तो स्टील के बर्तनों का जमाना है। यहाँ पीतल या फूल के बर्तनों को कौन पूछता है?

'वह मरा लाख कह ले! तू पूछ के देख ले। 'अपनी अम्मा से। फूल के पतीले मैं पकी दाल के क्या कहने? उसका स्वाद कहीं स्टील के बर्तन में मिलता है?'

'अब मिले न मिले। उसने जो कहा, मैंने आपको बता दिया।'

'ठीक है, बैठ। पर कालेज तो चार बजे छूट जाता है, तुझे आते आते इतनी देर क्यों हो जाती है? पुदुनगर से शंकरमंगलम गाड़ी को आने में तीन घंटे लगते हैं क्या?

'वह तो बीस किलोमीटर की दूरी ही है दादी। पर बस बीस मील की दूरी में छोटे बड़े मिलाकर कुल उनतालीस गांव हैं। चार गांवों के स्टेशन हैं। कानूनन गाड़ी को उनमें ही रुकना है। पर बाकी लड़के इधर-उधर चेन खींच देते हैं। सुबह भी यही होता है, शाम भी।

कुमार के पीछे पीछे पार्वती भी चली गयी।

'बाऊ जी कहाँ हैं पारू?'

बाऊ भूमिनाथपुरम गए हैं। अच्छा छोड़ो, पता है, भैय्या आ रहे