अल्ल सुबह स्नानादि से निपट कर भीगे बालों को खोले, माथे पर सिंदूर का टोका लगाए, बेला, कपूर, तुलसी, दशाँश की महक फैलाती माँ रवि को साक्षात् देवी स्वरूपा लगती।
माँ के तमाम नियम अनुष्ठानों से लाख असुविधायें भले ही होती हों, पर उसे ही नहीं घर के बाकी सदस्यों को भी उनके नियम मान्य रहे। यह माँ के दिए संस्कारों का प्रभाव है, यह बह खूब जानता था।
इसी अगस्त्य नदी के तट पर स्थित शंकरमंगलम से कुछ ही मील दूर स्थित ब्रह्मपुरम के एक वैदिक ब्राह्मण के परिवार की पुत्री पिरू कैसे संस्कार लेकर आती? माँ का संस्कृत और शास्त्र, ज्ञान बाऊ जी की तरह गहन भले ही न हो पर उन्हें अच्छा ज्ञान था, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। अपने छात्र जीवन में माँ के इस पूजा पाठ से दैनिक जीवन में होने वाली असुविधाओं को रवि न एक खूबसूरत नाम दे रखा था―'पवित्र असुविधाएँ है!' पर पूरा घर इस असुविधाओं के साथ जीता था। मजे की बात यह कि उनसे अलग भी नहीं होना चाहता था।
रवि का पत्र कामाक्षी के भय से ही शर्मा जी ने छिपा रखा था। रवि के इस प्रेम प्रसंग की बात उनके अतिरिक्त दे दो ही लोग जानते थे, जिनसे उन्होंने चर्चा की थी।
रवि के फ्रेंच युवती सहित भारत आने की बात के किसी को फिल- हाल बताना नहीं चाहते थे। इसमें कई दिक्कतें थी। वेणु काका ने रवि और उसको प्रेमिका को अपने घर ठहराने की पहल की थी, पर उनके होते हुए उनका बेटा सिर्फ इस वजह से किसी गैर के घर रहे कि उसकी प्रेमिका विदेशी है―उन्हें यह बात नागवार लगी।
उन्होंने इस मसले पर और अधिक व्यावहारिक होकर सोचना चाहा। बेटे पर जान देने वाली वह युवती क्या सोचेगी उसके बारे में? बेटा भी उसे कैसे समझायेगा कि किसी पराये घर में उन दोनों