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३८::तुलसी चौरा
 


काली कमीज वाले परम नास्तिक को बैंठे और बतियाते देखकर लोगबाग विस्मित होकर क्षण भर के लिए ठिठक जाते।

पंडिल विश्वेश्वर शर्मा और इरँमुडिमणि सालों पहले शंकर- मंगलम के माध्यमिक विद्यालय में सहपाठी रहे थे। जीवन की दिशाएँ, उनके मूल्य एक दूसरे के विरोधाभासी भले ही रहे हों, पर मैत्री उसी तरह बरकरार रही। तु-तड़ाक में ही बातें होतीं। पर दूसरों के साथ चर्चा करते तो एक दूसरे का उल्लेख आदर के साथ करते। वे अपने- अपने मूल्यों पर टिके रहते हुए भी दोस्ती को बखूबी निभा रहे थे, इस बात का उन्हें गर्व था। इरैमुडिमणि इतने सबेरे, उनके पास किस काम से आया होगा! शर्मा जी सोचने लगे। वह स्वयं बतलायेगा। इतना अधीर होना भी शोभा नहीं देता। वे परिवार का कुशल- क्षेम पूछने लगे। बात रवि पर आ कर टिक गयी।

‘बेटे से कोई पत्र आया है?’

‘हाँ, आया है। आने ही वाला है।’

‘कब आ रहा है?’

‘तारीख तो नहीं पता, हाँ जल्दी आयेगा। हमने तो लिख दिया है।’

शर्मा जी को लगा, इस परम प्रिय मित्र से खुलकर सब कुछ कह डालें और उससे परामर्श लें। फिर भी वे पहले उसके आने की वजह से वाकिफ हो जाना चाहते थे।

इरैमुडिमणि जल्दी ही असली मुद्दे पर आ गए।

‘उत्तरी मोहल्ले के छोर पर जो खाली जमीन पड़ी है, उसमें बड़का जमाई,....

अरे वही गुरु स्वामी―दुकान उठाना चाहता है। पूछा तो पता लगा, जमीन मठ की हैं। इसलिए तुम्हारे पास चला आया। सही किराये पर जमीन मिल जाये तो अच्छा रहेगा।

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