'इसके लिए तो श्री मठाधीश को एक पत्र डालना होगा। उनसे पूछकर ही कुछ कर पाऊँगा।'
'अब जो भी लिखना है जल्दी लिख डालो।'
'ठीक है याद से आज ही लिख दूँगा।'
'तो फिर चलूँ।'
'ठहरो देशिकामणि। तुमसे एक सलाह लेनी है।'
इरैमुडिमणि फिर ओसारे पर बैठ गए। धीमे स्वर में शर्मा जी ने रवि के पत्र और अपने उत्तर के विषय में सूचना दी।
'तुम तो मेरे जिगरी दोस्त हो तुम ही बताओ मुझे क्या करना होगा?'
'तो उसने कुछ गलत तो नहीं किया। आज्ञवल्क्ष्य में पता है, क्या लिखा है? विवाह की आयु को प्राप्त युवक का विवाह यदि उसके माता-पिता उचित काल में नहीं करते, तो उसे अपनी पत्नी स्वयं चुनने का पूरा अधिकार है।'
'देख यार! मैं तुमसे अधिकार या न्याय की बात नहीं पूछ रहा! मैं तो उसके व्यावहारिक पक्ष के विषय में जानना चाहता हूँ।'
'संभव या असंभव के बीच त्रिशंकु की तरह झूलते रहने से बेहतर है कि संभव बना लिया जाए। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं इस तरह विवाह का स्वागत करता हूँ।'
कुछ देर बातें करने के बाद इरैमुडिमणि लौट गए।
इरंमुडिमणि ने एक तार्किक बुद्धिजीवी के रूप में अपनी बात रख दी थी। याज्ञवल्क्य का उद्धरण देकर अपनी बात की पुष्टि भी कर दी। शर्मा जी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। इसकी वजह भी थी।
इरैमुडिमणि एक आश्चर्यजनक व्यक्ति थे। एक बार हुआ यह था कि उन्होंने किसी पुराण कथा का तार्किक विश्लेषण करते हुए उसका संदर्भ गलत दे दिया था। विरोधी पक्ष ने जमकर खिंचाई की