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४० :: तुलसी चौरा
 


थी। किसी भी तथ्य के अधूरे ज्ञान के आधार पर तर्क नहीं किया जा सकता। बस तभी से वे जुट गए थे। लगन से संस्कृत और तमिल के पुराण पढ़ डाले, नीति शतक और धार्मिक ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। उनकी इस लगन और ईमानदारी की कइयों ने तारीफ की। किसी भी बात का खन्डन करने के पहले जरूरी है कि उसके बारे में पूरी तरह आश्वस्त हो लिया जाय। यह उनकी निष्ठा का तकाजा था। नास्तिकवाद और बुद्धिवाद के प्रति लोगों में विश्वास भी, इसी कारण जगा। पर शंकरमंगलम और उसके आस पास के गाँव वालों को जब भी कोई पौराणिक, ऐतिहासिक या धार्मिक शंका उठती वे या तो शर्मा जी के पास आते या परम नास्तिक इरैमुडिमणि के पास पहुँचते। शर्मा जी देर तक याज्ञवल्क्य के उद्धरण पर विचार करते रहे। फिर भीतर से कागज कलम उठा लाए। खाली जमीन के संदर्भ में श्री मठ को एक पत्र लिखा। कुमार के हाथों उसे भिजवा भी दिया, ताकि जल्दी पहुँच सके।

पर मन था कि बार बार रवि और उस फ्रेंच युवती के बारे में सोच रहा था।

'धरमशाले से आपके मकान में प्रायवेसी कहीं नहीं हैं। कहाँ ठहरायेंगे उन्हें?'

वेणु काका का प्रश्न बार-बार जेहन में उभर रहा था। उनके घर ठहराना उचित नहीं होगा।

गाँव वाले तो यूं ही बात का बतंगड़ बनाते हैं, यदि ऐसा किया तो अच्छी खासी पंचायत हो जाएगी। लोगबाग ताने कसेंगे कि घर वालों के साथ रवि की पटरी नहीं बैठी, इसलिए वेणु काका के घर ठहर गया।

शर्मा जी का ध्यान भंग हुआ। पार्वती स्कूल जाते हुए उनसे विदा लेने बाहर आयी मन ने जैसे कोई निर्णय लिया और उठकर भीतर चले गये। बैठक और ऊपरी मंजिल को ध्यान से देखने लगे।