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तुलसी चौरा :: ४५
 


ठीक करता हूँ।' रवि के आने के एक दिन पूर्व का वार्तालाप था यह! अगले दिन सुबह चार बजे ही शार्मा जी तैयार हो गएँ। लग्न का दिन था इसलिए हवा में तैरती नादस्वरम की मधुर ध्वनि पुष्प वर्षा की तरह उनके मन को भिगो रही थी। बसन्ती ने बहुत समझाकर देखा पर कामाक्षी टस से मस नहीं हुई।

'मेरा भला वहाँ क्या काम है, री? तुम लोग हो आओ। कोई घर पर भी तो रहे, उसके स्वागत के लिए। मैं रहूँगी घर पर।'

बसन्ती घर गयी। बाकी लोगों को लेकर चल दी। रास्ते में गाड़ी रोककर दो हार ले लिए। सुबह की ठंडी हवा, बेले के फूलों की भीनी महक और ऊपर से हवा में तैरती नादस्वरम की मधुर ध्वनि-विवाह का-सा माहौल लगने लगा था।

वेणु काका ने बसन्ती से पूछा, 'रवि की माँ क्यों नहीं आयी, बसन्ती! गुस्से में हैं क्या?'

'पता नहीं बाऊ। ऊपर से तो शांत ही लगती हैं, पर मन में जाने क्या…?'

'ऐसी कोई बात नहीं होगी। बेटा आ रहा है न। घर पर खीर- वीर बनाने में जुट गई होंगी।' वेणु काका ने बात बदल दी।

ट्रेन सही वक्त पर आ गई। इन लोगों की अपेक्षा के विपरीत रवि और कमली दूसरी श्रेणी के डिब्बे से उतरे। सूती धोती पहने माथे पर कुंकुम का टीका लगाए, कमली ने उन लोगों को देखकर हाथ जोड़े। स्टेशन के पास बने विवाहमंडप में मंगल ध्वनि होने लगी थी, ठीक उसी क्षण रवि और कमली ने शंकरमंगलम की भूमि पर पैर रखे। 'यह मेरे पिता हैं।' रवि ने परिचय दिया। कमली झट पंडित विश्देश्वर शर्मा के चरणों पर झुक गई। शर्मा जी पुलकित हो उठे। उसे मन से असीसा। विवाह मंडप में भी वर और वधू को उसी क्षण आशीर्वाद दिए गये होंगे। कैसा संयोग था। शर्मा जी का मन तृप्त हो उठा था। कमली की देह से उठती भीनी सुगन्ध प्लैट फार्म पर फैलने लगी। शर्मा जी ने