स्टेशन से लौटते हुए वेणु काका ने जान बूझकर रवि, कमली और शर्मा जी को एक कार में पीछे कर दिया और स्वयं बसंती, कुमार और पार्वती को लेकर आगे चले आएँ। इन लोगों को घर पर उतार कर काका शादी में चले गए। चौखट पर एक साधारण सी अल्पना ही बनायी गई थी। बसंती ने पारू को हांक दिया।'
'जल्दी से चावल का घोल बना ला। सुन गेरू भी लेती आना। बड़ी सी अल्पना बना लेंगे। झटपट एक थाल में हल्दी-चूना घोल कर आरती तैयार कर ले। वे लोग आते ही होंगे।' एक नब विवाहिता जोड़े के स्वागत की भी तैयारी करती हुई बसंती मन ही मन कामाक्षी काकी से घबरा भी रही थी।
रवि और कमली के प्रति अगाध प्रेम ही था कि भय को भी परे कर दिया।
पार्वती ने गेरू का घोल तैयार किया। भीतर से कामाक्षी की स्त्रोत लहरी हवा में तैरकर बसंती के कानों तक पहुँच गयी।
'तुलसी श्रीसखि, शुभे पापहारिणी पुण्यदे
नमस्ते नारदनुते नारायण मनप्रिये।'
काकी के उच्चारण की स्पष्टता पर बसंती मुग्ध हो उठी। उसे जाने क्यों बार-बार यही लग रहा था; कि काकी ने काम वाला बहाना जान बूझ कर बनाया है। उनके न आने की वजह तो कुछ और ही है।'
पार्वती ने खूबसूरत अल्पना बना दी थी। बसंती ने गेरू की रेखा से सटी एक रेखा और खींच दी। पार्वती भीतर से आरती का घोल ले आयी। शंकरमंगलम रेलवे स्टेशन से गाँव के भीतर आते हुए रास्ते में पीपल के पेड़ के नीचे गणेश जी का एक पुरातन सा मन्दिर था। चाँद वाले उन्हें 'पथबन्धु विनायक मन्दिर' कहते थे। गाँव से बाहर जाने वाले और बाहर से गाँव आने वाले एक पल के लिए यहाँ जरूर रुकते।