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तुलसी चौरा :: ५५
 

पर दादी भला कैसे छोड़ती! आँखें भरीं, ठीक से दिखती ही नहीं। तनिक पास आओ रवि, जी भर कर देख लें...।' अपनी हथेली की ओट आँखों पर कर ली और पास आ गयीं। रवि को अपर से देखा।

'पहले से रंग निखर आया है। ठंडी जगह है न? इसलिए। क्यों कामू? ठीक ही कहा न।'

उन दोनों को उसी बहस पर लटकाकर रवि ऊपर चला आया। वाऊ जी सोलह पेजी अखबार के संपादकीय पृष्ठ तक पहुँच चुके थे। पाठकीय पत्रों को देख रहे थे। रवि को लगता है कि रिटायर होने वाले पिताओं का इस पत्र वाले कालम से कोई खास रिश्ता होगा। उसने देखा है, कि भारतीय अखबारों में इस कालम में लिखने वाले एक खास वर्ग/उम्र के लोग होते हैं। वह बाऊ जी को उसी काम में उलझा देखकर मुस्करा दिया।

बाऊ जी ने सिर उठाकर उसे देखा और पूछा,

'क्यों रवि? उससे बातें हुई? क्या कह रही है?'

'बातें शुरू ही की थी कि मीनाक्षी दादी चली आयीं। अम्मा तो सहज ही थीं, पर बाऊ जी लगता है, उनके भीतर गुस्सा है।'

'यही तो फर्क है स्त्रियों और पुरुषों में। पुरुष जिस पर विचार करता है, और उस पर संदेह व्यक्त करने की सोचता है, उसी बात को स्त्रियाँ जाने कैसे भाँप लेती हैं, और शुरुआत ही संदेह से करती हैं।'

'आप अम्मा को पहले से ही पूरी बात बता चुके होते तो सारी बातें साफ हो जाती अब छिपाने की वजह से परस्परिक मतभेद की गुंजाइश बढ़ गयी है।'

'सोचो तो, जब उसे कुछ भी नहीं मालूम है, तब इतना गुस्सा आ रहा था। मालूम हो गया होता तो? तुम्हारा पत्र पढ़कर तो मैं ही चौंक गया था। समझ में ही नहीं आया क्या उत्तर दूँ। पर