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तुलसी चौरा :: ५७
 


'पर सही बात के लिए जिद नहीं करते। जहाँ नहीं करनी चाहिए वहाँ करते हैं।

रवि ने अपने बक्से खोलने शुरू किये।

'पारू और कुमार दोनों ने ही पत्र लिखा था कि उन्हें रिस्टवाच चाहिये। कोई सात आठ महीने पहले की बात है। मैं तो भुल भी गया था। कमली ने ही याद दिलाया। उसने याद न दिलाया होता तो भूल ही गया होता। 'रवि ने दो छोटी-छोटी डिविया आगे बढ़ायी।

शर्मा जी ने खोल कर देखा।

'अच्छी हैं, उससे कह दो, खुद अपने हाथों से बच्चों को दे दे।'

कुछ देर तक गाँव की बात होती रहीं।

शर्मा जी नीचे उतरने लगे।

बसंती के साथ टोकरी भर चमेली के फूल गये कमली सीढ़ीयाँ चढ़ रही थी। उसका बच्चों का सा उत्साह देखकर शर्मा जी हँस दिए।

कमली को ऊपर छोड़कर बसंती वर लौटने लगी। घर जाने के 'पहले याद से चौके तक गयी और कामाक्षी से बोली, 'काकी'! खीर बनाइए! कितने दिनों बाद तो बेटा लौटा है। 'बसंती खीर का असली कारण छिपा गयी। लौटकर उसे कमली को फूल गूंथना भी सिखाना है। वह घर के लिए चल दी।

सुबह से लगातार बूंदा-बांदा हो रही थी। शंकरमंगलम बैहद खूब सूरत लग रहा था! पश्चिमी दिशा की पर्वत श्रेणियाँ गहरे नीले रंग में चमक रही थीं। बरसात के दिनों में पर्वतीय इलाके दुलहन की तरह खूबसूरत लगने लगते हैं। शर्मा जी ने दुबारा स्नान किया और पूजाघर के अंदर चले गये। उस घर में सुबह की पूजा का विशेष महत्व है। पौन घंटे से एक घंटे तक यह पूजा चलती है। कामाक्षी ने धूप जला दिया। लकड़ी के दहकते कोयले धूपदानी में डाल दिए। पार्वती ने नहा धोकर पूजा के लिये फूल लाकर रखा दिए। 'पारू भैय्या वहां