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५८ :: तुलसी चौरा
 


चुके हों तो कह दो नीचे आ जाएँ।’―पारू से कहला भेजा।

कामाक्षी ने उन्हें झिड़का। ‘उसे काहे परेशान कर रहे हैं। थका हुआ आया है। आराम कर ले।’

‘बहुत दिनों के बाद लौटा है। पूजा भी देख ले।’

कामाक्षी भीतर से भोग लाने चली गयी। रवि और कमली इसी बीच नीचे उतर आए। रवि धोती और उतरीय में था। कमली पीले रंग की चुनरी साड़ी पहने थी। माथे पर टीका। शेंपू से धुले बाल, स्लीवलेस ब्लाउज। ब्लाउज का रंग स्वचा से मेल खाता हुआ, पह- चान में ही नहीं आ रहा था! एक नयी कोमल कविता की तरह वह पूजाघर में आ खड़ी हुई।

वह पहले ही नहा चुकी थी और रवि उसके बाद नहाने वाथरूम पहुँचा। बाथरूम में उसके शैंपू, साबुन की महक फैली हुई थी। चूने और गारे की गंध जाने कहाँ गुम हो चुकी थी। रवि को लगा, जैसे वह गंधर्व लोक में विचरण कर रहा हो। वह नहाकर बाहर निकला, तो कमली तैयार हो चुकी थी। स्लीवलेंस ब्लाउज पर वह उसे टोकना चाहता था, पर जाने क्या सोचकर रुक गया। कहीं वह यह न समझ ले कि उसकी स्वतन्त्रता पर आघात किया जा रहा है।

सम्पन्नता में पली लड़की उसके प्यार में सब कुछ छोड़कर यहाँ आयी है। उसे एक-एक बात पर टोकना वह नहीं चाहता। हालाँकि कह देता तो वह मानने को सहर्ष तैयार हो जाती। फिर भी वह चुप रहा। दूसरों की आजादी को महत्व देने की यह सभ्यता उसने विदेश में रहकर सीखी थी।

दूसरी ओर शंकरमंगलम जैसे गाँव में सोने की मूर्ति सी कोई युवती, कंधे उघाड़ कर चले, तो इसकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है, उससे भी वह खूब वाकिफ था।

गाँव की बात जाने भी दें, तो भी, घर पर बाऊ जी और अम्मा क्या सोचेंगे? उसने मन ही मन सोचा। जहाँ तक उसका प्रश्न था